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11.13.2007 |
1 |
एक
अहम मसला अभी भी मेरे और अनी को बीच सुलझ नहीं पा रहा था। दिन गुजरते
जा रहे थे। मैं अक्सर किताब पढ़ने का बहाना लगा कर देर से बिस्तर में
आती और सो जाती। जब भी कुछ होने लगता मैं कतरा जाती। किसी न किसी तरह
बाहर निकल आती।
अनी
की तकलीफ़
भी
मेरी समझ में आती थी पर वह बहुत सभ्यता से मेरे व्यवहार को समझने की
कोशिश करता रहा। अक्सर मैं थक जाने की बात करती। यह भी सही था कि मुझे
काम बहुत रहते। पढ़ाई,
घर के
काम,
ड्राईविंग बहुत कुछ मेरे जिम्मे था। मैं कहती मुझे इतना काम करने की
आदत ही नहीं। वहाँ घर का काम तो मुझे छूना भी न पड़ता था। सभी कुछ माँ
ने अपने ऊपर लिया हुआ था। यहाँ बाहर-घर का कितना कुछ सभी मुझी को
सम्भालना था। थकान लाज़मी थी।
पर वे
सिर्फ़
बहाने
थे। इसे मैं समझती थी और अनी समझने की कोशिश में रहता था।
तीन
साल गुजरने को आये थे और हमारे बीच अभी तक सही तरह से विवाहित जोड़े का
रिश्ता नहीं बन पाया था। यह नहीं कि हमारे बीच शारीरिक नैकट्य नहीं
था। लेकिन वह अपनी पूर्णता तक नहीं पहुँच पाया था।
शादी
की चौथी सालगिरह के दो महीने पहले मेरा जन्मदिन पड़ता था। अनी ने उस
दिन काम से छुट्टी ले ली और पूरा दिन साथ घूमने का प्रोग्राम बनाया।
शाम को हम लोग एक बढ़िया से इटालियन रेस्तराँ में खाना खाने गये।
कियाँती का घूँट भरते हुए मैंने खुद से काहा - आज अनी से वह सब कुछ कह
दूँगी जो कह नहीं पाती।
मैंने
अनी की आँखों में झाँकते हुए कहा-
“तुमको
कुछ कहना है।”
वह
मुस्कुराया और बोला-
“क्या
इस बीच किसी और से प्यार हो गया तुम्हारा?”
“धत`..”
“तो
क्या किसी के साथ..”
“दिस
इज़ सीरियस..”
मैंने
अनायास बात को सवाल में बदल दिया-
“अच्छा
ये बताओ कि अगर कोई आदमी एक लड़की से बलात्कार करे तो...”
और
मुझे समझ नहीं आया कि आगे क्या कहूँ।
“तो..?
वैल
दैट इज़ वैरी अनफारचुनेट.... तुम कहना क्या चाहती हो?”
“तो
दोष किसका होता है?”
“दोष..
आबवियसली आदमी का..या कह सकती हो परिस्थितियों का।”
“मतलब?”
“मतलब
कि बलात्कार भी तो कई तरह के होते हैं जैसे कि जब युद्ध के समय सैनिक
बलात्कार करते हैं तो उसमें शत्रु
की
औरतों के प्रति वही घृणा और उनको तकलीफ़
देने
का,
उन पर
अपनी विजय घोषित करने का भाव खास तौर से यह काम करवाता है। शत्रु
का सब
कुछ तहस-नहस करना ही तो उनका मकसद होता है तो यह भी...”
“और
आम समय में?”
“इसका
कोई एक जवाब तो नहीं हो सकता..कहा न कि कब,
कैसे
सब हुआ,
इस पर
बहुत मुनस्सर हो सकता है। अब मान लो एक पुरुष को कोई औरत अच्छी लग रही
हो और वह उसे मिल न सकती हो और वह इतना बेबस हो जाये...पर ज्यादातर ऐसे
लोग बलात्कार नहीं करते। जिनमें कुछ हिंसक वृत्ति हो वही मनचाहा न
मिलने पर बलात्कार करेगा।”
“लेकिन
अनी जब तक औरत खुद न चाहे तब उसे चाहने पर भी आदमी को यह हक़ तो नहीं
मिल सकता न कि वह ज़बरदस्ती...”
हक
की तो बात ही नहीं... हक तो शादी के बाद भी नहीं होता। इन्सानी रिश्तों
में हारमनी तभी आ सकती है अगर दोनों की इच्छा का मेल हो...”
हक
शादी के बाद भी नहीं होता.. मैंने इस वाक्य पर गौर किया। तभी अनी आज तक
इन्तज़ार कर रहा है!
“तो
फिर फैसला क्या हुआ कि दोष भी दोनों का होता है..”
“न..न
यह कब मैंने कहा?
आदमी
का जबरदस्ती करना वाकई उसे दोषी बनायेगा लेकिन औरत का उसकी जबरदस्ती
सहने में भी तो दोष है”
मेरा
तो सर घूम गया। यह क्या कह रहा था अनी। वह तो मुझे ही दोषी ठहरा रहा
है! अब क्या होगा!
क्या
मुझमें इतनी ताकत थी कि अंकल को परे धकेल डालती?
मैंने
कोशिश तो की थी। नहीं धकेल पायी थी। फिर कई तरह के बोझ! अगर पुरुष की
ताकत कई गुना ज्यादा हो तो क्या फिर भी...?
अचानक
मेरा जी मिचमिचाने सा लगा। अनी ने मेरे चेहरे पर कुछ देखा -
“तबियत
खराब है क्या?”
“मैंने
शायद वाईन ज्यादा पी ली है। तबीयत खराब हो रही है।”
“थोड़ा
सा पानी ले लो। थोड़ी ड्राइनेस महसूस कर रही होगी।”
उसने
फिर मेरे चेहरे को गौर से देखते हुए कहा -
“तुम्हारी
तबीयत तो कुछ ज्यादा ही खराब लग रही है। क्या हो रहा है?”
“कुछ
नहीं... नौज़िया - सा... मैं रेस्टरूम (बाथरूम) होके आती हूँ।”
“मैं
साथ चलूँ?”
“नहीं...
नहीं..इतना बुरा हाल नहीं..”
और
मैं धीरे-धीरे चलती हुई बाथरूम पहुँची तो खटाक`
से
सिंक में ही उल्टी कर डाली।
मैंने
कुल्ला किया। मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मारे और वहीं आराम कुर्सी
पर
बैठ गयी। दिल की धड़कन बढ़ी हुई थी। माथा चकरा रहा था।
कुछ
मिनट आँखें बंद कर के बाथरूम में लाऊँज में ही बैठी रही।
“बहुत
देर लगा दी तुमने। तबीयत खराब हो रही है तो कुछ हल्का सा ही खाना।”
वापिस
आ मेरे मेज़ पर बैठते ही अनी ने कहा। मैंने उसे उल्टी आने की बात नहीं
बतलायी। उसे बेकार फिक्र भी लग जाती। जबकि फिलहाल मैं कुछ बेहतर ही
महसूस कर रही थी। पर खाने का मन कतई नहीं था।
“कुछ
भी न खाऊँ
तो?”
“नहीं..नहीं
कुछ हल्का सा तो खाना चाहिए वर्ना
और भी
बीमार हो जाओगी।”
बात
फिर रह गयी थी। मेरे भीतर बेचैनी का कोई पेड़ उग आया या जो दिन पर दिन
बढ़ता ही जा रहा था। उसकी शाखाएँ फैलती जा रही थीं। कब वे फूट कर मुझसे
बाहर आ जायें...?
खुद
से बार-बार कहती...मैंने विरोध तो किया था। उसके बावजूद सब हो गया!
क्या रोका नहीं था अंकल को मैंने?
कितना
तो रोका था!
लगा
कि मैं अनी से कभी यह नहीं बता पाक्रगी। कभी नहीं। सब मर्द एक से होते
हैं। किसी का भरोसा नहीं किया जा सकता। सब की सोच एक सी।
अनी
भी शायद ऊपर से ही बड़ा खुले दिमाग का और प्रगतिशील बनता हो पर हम सब
की जड़ें तो मूलत: एक सी ही होती हैं..
मेरे
भीतर ही भीतर गल रहा था सब। शायद कभी हिम्मत नहीं पड़ेगी। यूँ
ही
गुजर जायेगी उम्र। यूँ
ही?
एक
झूठ में,
फरेब
में जीते जीते। नहीं ऋतु यह ज्यादा देर नहीं चलेगा। कब तक अनी के धैर्य
को चुनौती देती रहेगी। मैं खुद?
मैं
खुद भी आखिर कितना और बर्दाश्त कर सकती हूँ! इस तरह कसमसा कर कब तक जी
सकूँगी?
कब तक
झेलूँगी?
जैसे-जैसे वक्त बीतता जाता,
मेरी
हिम्मत बढ़ने की बजाय और भी पस्त होती जाती। पर यह स्वीकार नहीं था।
मेरा अंतस इस जीवन शैली को कतई स्वीकार नहीं सकता।
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