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08.07.2007 |
एक और कस्बा सुभाष नीरव |
देहतोड़ मेहनत के बाद,
रात
की नींद से सुबह जब रहमत मियां की आँख खुली तो उनका मन पूरे मूड में था।
छुट्टी का दिन था और कल ही उन्हें पगार मिली थी। सो,
आज वे
पूरा दिन घर में रहकर आराम फरमाना और परिवार के साथ बैठकर कुछ उम्दा खाना
खाना चाहते थे। उन्होंने बेगम को अपनी इस ख्वाहिश से रू–ब–रू
करवाया। तय हुआ कि घर में आज गोश्त पकाया जाये। रहमत मियां का मूड अभी
बिस्तर छोड़ने का न था,
लिहाजा गोश्त लाने के लिये अपने बेटे सुक्खन को बाजार भेजना मुनासिब समझा
और खुद चादर ओढ़कर फिर लेट गये।
सुक्खन थैला और पैसे लेकर जब बाजार पहुँचा,
सुबह
के दस बज रहे थे। कस्बे की गलियों–बाजारों
में चहल–पहल
थी। गोश्त लेकर जब सुक्खन लौट रहा था,
उसकी
नज़र ऊपर आकाश में तैरती एक कटी पतंग पर पड़ी। पीछे–पीछे,
लग्गी
और बांस लिये लौंडों की भीड़ शोर मचाती भागती आ रही थी। ज़मीन की ओर आते–आते
पतंग ठीक सुक्खन के सिर के ऊपर चक्कर काटने लगी। उसने उछलकर उसे पकड़ने की
कोशिश की,
पर
नाकामयाब रहा। देखते ही देखते,
पतंग
आगे बढ़ गयी और कलाबाजियाँ खाती हुई मंदिर की बाहरी दीवार पर जा अटकी।
सुक्खन दीवार के बहुत नज़दीक था। उसने हाथ में पकड़ा थैला वहीं सीढ़ियों पर
पटका और फुर्ती से दीवार पर चढ़ गया। पतंग की डोर हाथ में आते ही जाने कहाँ
से उसमें गज़ब की फुर्ती आयी कि वह लौंडों की भीड़ को चीरता हुआ–सा
बहुत दूर निकल गया,
चेहरे
पर विजय–भाव
लिये !
काफी
देर बाद,
जब
उसे अपने थैले का ख़याल आया तो वह मंदिर की ओर भागा। वहाँ पर कुहराम मचा
था। लोगों की भीड़ लगी थी। पंडित जी चीख–चिल्ला
रहे थे। गोश्त की बोटियाँ मंदिर की सीढ़ियों पर बिखरी पड़ी थीं। उन्हें
हथियाने के लिए आसपास के आवारा कुत्ते अपनी–अपनी
ताकत के अनुरूप एक–दूसरे
से उलझ रहे थे।
सुक्खन आगे बढ़ने की हिम्मत न कर सका। घर लौटने पर गोश्त का यह हश्र हुआ
जानकर यकीकन उसे मार पड़ती। लेकिन वहाँ खड़े रहने का खौफ भी उसे भीतर तक
थर्रा गया–
कहीं
किसी ने उसे गोश्त का थैला मंदिर की सीढ़ियों पर पटकते देख न लिया हो !
सुक्खन ने घर में ही पनाह लेना बेहतर समझा। गलियों–बाजारों
में से होता हुआ जब वह अपने घर की ओर तेजी से बढ़ रहा था,
उसने
देखा हर तरफ अफरा–तफरी
सी मची थी,
दुकानों के शटर फटाफट गिरने लगे थे,
लोग-बाग इस तरह भाग रहे थे मानो कस्बे में कोई खूंखार दैत्य घुस आया हो! |
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