हरी नरम घास पर पसरी है धूप
बगल की बेंच पर खालीपन बैठा है
हवा डगमग टहल रही है
कोई किसी की उँगली नहीं पकड़ता
कोई किसी से बात नहीं करता
सम्बन्ध अकेले ज़मीन खोज रहा है
अजब उमस भरा दिन है
पेड़ किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े हैं
स्तब्ध एकदम शान्त है काल
क़ब्र पर जमा हो रहे हैं लोग
आस्था और लाभ को बचाते हुए
पर यह किस की क़ब्र है!
आज तक यह निश्चित नहीं हो सका
और अलग अलग दावों, वायदों में
रौंदा जाता रहा और विकसित होता रहा पार्क
कहाँ गये, कहाँ गये वे लोग आख़िर
आँखों में सुन्दर स्वप्नों वाले
बंजरों को जिन्होंने हरा-भरा बनाया