
"मनुआ..............।
ओ .... रे
मनु.......।"
शामा आँगन की मुँडेर से आवाज़ दे रही है। कुछ देर चुप्प
खड़ी रहती है। दाएँ हाथ में सुलगती बीड़ी है। मनु पता नहीं कहाँ खेलने में
मस्त होगा। हाँक की कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं आती। खनकती आवाज़ से खेत
के किनारे चूली के पेड़ पर बैठे दो-तीन कौए जरूर उड़ जाते हैं। गाँव के
लोगों के लिए शामा का इस तरह आवाज़ देना कोई नई बात नहीं। लेकिन आज उनके
कानों में डायनामेट के बलास्टों की तरह पड़ी है। सभी के नाक-मुँह चढ़ गए
हैं। सामने की पगडंडी से एक गाय बिदकती आ रही है। वह फूला पंडिताणी की है।
पशुओं को चरा कर ले आते वक्त कुलच्छणी रोज ही गौशाला में जाने के बजाए शामा
के घर की तरफ रुख कर देती है। फूला उसी को कहे रुकवा देती थी। पर आज पारा
गरम लगता है। मन की चिढ़ गाय पर कम और शामा को देख ज्यादा है। उसी रफ्तार
से पीछे डन्डा लेकर भाग आती है। शामा भी परवाह नहीं करती। झटपट बीड़ी के
दो-चार कश खींचती है। उँगलियों के बीच जब सेंक छूता है तो झटसे नीचे फैंककर
पैर से मसल देती है। पुन: हाँक देती है मनु को,
"ओ
रे मनुआ.......। मनु ओए.....।"
उसका कहीं अता पता नहीं है। गुस्से में गालियाँ बकने लगती है, "पता नी
कोढ़ी किस के दरवाज़े घुस्सा होगा। कमजात, हरामी कहीं का। मेरा लहू पीणे पैदा
हुआ है। आणा तू घर। आज तेरी टाँग नी तोड़ी तो मेरा मेरा नी बोलणा।"
बड़बड़ाती हुई भीतर जाने लगती है। अभी दरवाज़े के पास ही पहुँची थी कि
पंडिताइन गाय को ’गोट’ कर ले आई। गाय सीधी जाने के बजाए शामा की तरफ मुड़
गई। इस आशा से कि पहले की तरह रोटी की पिन्नी या टुकड़ा मिल जाए। फूला तो
गुस्से में थी ही। भीतर का गुस्सा गाय की पीठ पर उतरा। आठ-दस धर दिए। डन्डा
भी टूट गया। शामा जितने में भीतर जाकर रोटी का टुकड़ा लिए लौटी, गाय भाग
ली। पीठ पर जहाँ-जहाँ भी मार पड़ी, लम्बी धारियाँ बन गई थी। शामा दलहीज पर
खड़ी-खड़ी देखती रहती। करती भी क्या। गुस्से से दाँत कटकटाती रही, मानो
दर्द उसे ही हो रहा हो।
"पागल हो गई है बामणी। राँड गोमाता को भी नी छोड़ती। थू तेरे को।
जोर से थूक दिया। रोटी के टुकड़े को इतने जोर से मसला कि चूरा-चूरा हो
गया। उल्टे हाथ छत पर फेंक दिए। वे खपरैल के बीच जगह-जगह ठहर गए। दो-तीन
कौए आकर उन्हें चुगने लगे। भीतर खड़ी शामा काफी देर उनकी खटर-पटर सुनती
रही। कुछ बारीक टुकड़े भीतर भी गिर गए। छत की तरफ देखा। खपरों के बोझ से
एक-दो बाँस की कड़ियाँ मुड़ गई थीं। कई जगह इतनी बीच कि आसमान के तारे गिन
लो। धुँए से काली-बदरंग होती छत। घास के लम्बे तिनकों में फंसा कीरा और
उनसे लटकते मकड़ी के जाले। बरखा होती तो कई जगह से पानी टपकने लगता। एक-दो
जगह तो पानी से, मिट्टी की भीत में खराद सी लग चुकी है। गारा-गोबर भी कितना
पाथे शामा। एक तरफ लिपाई करे तो दूसरी जगह खुरने लगती है। पता नहीं कब
खपरे-बाँस सिर पर आ जाए। बाहर से आती रोशनी ने उन्हें ज्यादा डरावना बना
दिया है। वह भागकर दरवाज़ा फेर लेती है। भीतर सब कुछ हलके अंधेरे में समा
जाता है।
महज एक कमरे का घर है शामा का। पहले वह गौशाला थी। उसका दिल
जानता है कि किस मुश्किल से सिर ढाँपने लायक किया था। लोग बताते हैं कि
उसमें जो गाय-भैंस बँधी रही, न कभी बोली और न ही अहँसो आसरे हुई। पर उसके
तो एक बेटा हो गया। आज उसी के लिए पंचायत.........कि मनु बेतुख्मी
औलाद.............? याद आया तो जैसे सिर पर किसी ने ठंडे पानी का घड़ा उलटा
दिया हो। शरीर से प्राण ही निकलने लगे। शर्म के आवरण में ढका महसूस किया।
खड़े-खड़े चक्कर से आने लगे तो चूल्हे के पास बैठ गई। बिल्कुल सामने। इस
कड़ाके की धूप में इतनी सिरहन...?
उसने चिमटा उठाया और राख को इधर-उधर करने लगी। दबे अंगारे जाग गए। वह
निनिमेष देखती रही और कहीं उन्हीं में खो गई। जलते-बुझते अंगारे। बाहर से
हवा के झोंके आते तो जुगनुओं की तरह चमकने लगते। उनका सेंक बढ़ जाता। चिमटे
से फिर उलटती-पलटती। कई पल छेड़ती रही तो टूटकर एक से कई-कई हो गए। इस
होने-टूटने की क्रिया में उलझी न जाने कब तक यूँ ही बैठी रही। कुछ भी सूझ
नहीं रहा था। कभी लगता जैसे शरीर जल कर राख हो गया है। चूल्हे में राख उसी
की है। हड्डियाँ हँसा कर आग के कतरों में चमक रही है।
भीतर भी कुछ उसी तरह जल-बुझ रहा था। साँस लेती तो लगता आग की लपटें
निकल रही है। कलेजा मुँह को आ रहा है। शरीर में भयँकर
जकड़न। पल-पल सूखता हँसा। तालू से चिपकती जीभ। कोशिश करती कि मुँह में
गीलापन आ जाए पर व्यर्थ। इतनी हिम्मत भी नहीं कि उठ कर घड़े से पानी
निकालकर पी ले।
धड़ाम से दरवाज़ा खुला तो चौंक गई थी शामा। चूल्हे पर गिरने से बची।
सोचा कि मनु आया होगा। गुस्से में चिमटा उठा लिया। देखा तो पंचायत का
चौकीदार था।
" तू आती क्यों नी शामा ? कितणी देर से पंचायत तेरा इंतजार कर रही है।
उठ जा। म्हारे को तेरी ही पंची नी करनी है। और काम भी है।"
जैसे किसी ने कीचड़ का टोकरा सिर पर फेंक दिया हो। बैठे-बैठे दरवाज़े
की तरफ देखती रही। पंचायत का चौकीदार अभी भी यमदूत की तरह खड़ा था। दाहिना
पैर दलहीज के बीच और हाथ दरवाज़े की साखों पर। साफ था कि उसने दरवाज़ा पाँव
की ठोकर से खोला था।
बिना खड़खड़ाए या हाँक दिए दरवाज़ा खोलना कोई नई बात नही थी। तकरीबन
सभी उसके साथ ऐसा ही व्यवहार करते। जैसे वह इंसान नहीं कोई चौराहे का ठिया
हो। जिसका मन किया दो घड़ी उठ-बैठ लिए। आराम फरमाया। अपना बोझा टिकाया। या
चौकड़ी जमा कर ताश खेलने लग गए। दारु-सुल्फा पीते लोट-पोट हो लिए। या फिर
भीत में ठूँसी कोई खूँटी......कभी झोला लटकाया तो कभी कोट। कभी फटे-पुराने
कपड़े। सदरी तो कभी पायजामा। किसी रोज कुरता तो कभी टोपी।
शर्म से फिर पानी-पानी। अतीत कहीं भीतर की टीस में गुम। आछन्न। घुप्प
अंधेरा, मानो कभी सूरज उगा ही न हो।
उसने उठने का प्रयास किया। शरीर इस तरह अकड़ गया था जैसे किसी ने
रस्सी से बाँध रखा हो। चिमटे का सहारा लेना पड़ा। भारी मन से उठी। उठते ही
चौकीदार दरवाज़े से हटा और रास्ते में तन गया। शामा ने एक-दो कदम आगे-पीछे
दिए। दोनों बाजू झटकाए। कुछ खून का संचार हुआ। शरीर में हल्का सा ढीलापन
आया तो मुड़ कर घड़े के पास गई और बैठ गई। टीन का डिब्बा खिसकाया और पानी
उड़ेलने लगी। छलाव संभला नहीं उससे। डिब्बा तो भरा पर काफी पानी नीचे उलट
गया। धार उसके पाँव के बीच से दौड़ती चूल्हे में घुस गई। आग और पानी ने
मिलकर एक डरावनी ध्वनि उत्पन्न की.......छ्छ ......छा ।
कमरा काले-सफेद धुँए से भर गया था। राख के कतरे सिर-माथे पर ऐसे बैठे
जैसे किसी ने जानबूझ कर पोथ दिए हो। आँखें मीच गईं। कुछ देर बाद जब आग-पानी
का धुआँ थमा तो उसने आँखें खोलने की कोशिश की। राख की किरचें बुरी तरह चुभ
गईं। दो-चार दफा मुश्किल से पलकें झपकाईं तो चुभन कुछ हल्की हुई। कुरते के
छोर से बाल, मुँह और आँखें पोंछी। फिर कपड़े झाड़े। डिब्बे में भरे पानी के
ऊपर भी राख की तह जम गई थी। वहीं से बाहर फैंका। चौकीदार थोड़ा बाएँ न हटता
तो सारा मुँह पर पड़ जाता। अचानक मुँह से निकला.............राँड कहीं की ।
शुक्र है कि शामा ने सुना नहीं। वरना उसकी खैर नहीं थी। जिस स्थिति से वह
गुजर रही थी न जाने क्या कर देती?
दोबारा पानी उड़ेला। पूरा डिब्बा खड़े हँसो पी गई। उठते-उठते सहजता के
बजाए कुछ अटपटा सा लगा। भीतर जैसे कुछ बुझ गया हो। फिर उसका सेंक पूरे शरीर
की शिराओं में पसर गया। उसी तरह जैसे चूल्हे में पानी के जाते ही अंगारे
उफ़ने थे। एक सरसरी नजर चूल्हे में डाली वह ठंडा हो गया था। बिल्कुल श्मशान
में बुझाई छाई की तरह। बुझे मन से दरवाज़े तक आई। बाहर देखा। दोपहर पूरे
यौवन पर थी। घर की छत, पेड़ों और घाटियों की सिमटती परछाइयाँ। आसपास की
गौशालाओं से आती गोबर और पशुओं की गंध। हँसाहँसा के पेड़ से लटकता पौ। उस
के आर-पार बैठी दो गौरैया और उनके तीन छोटे-छोटे बच्चे..........अपनी चोंच
पानी में डुबोती और बच्चों के मुँह में डाल देती। अचानक कुछ याद आया। वापिस
लौटी और चूल्हे के साथ रखी छाबड़ी पर से स्टील की थाली हटा दी। मन को
तस्सली हो गई....मनु के लिए दो रोटियाँ रात की बची हैं। खुद तो आज कुछ खाया
ही न था। कोने में रखा दराट उठाया, बूट लगाए और हड़बड़ी में बाहर निकल गई।
एक-दो कदम दिए तो पीछे देखा। दरवाज़ा तो ओटा ही नहीं था। वापिस लौटी और
शांहँसा चढ़ा दी। चौकीदार काफी आगे निकल गया था।
चलते-चलते शामा को महसूस हुआ कि आग के अंगारे भीतर चमकने लगे हैं।
सेंक धीरे-धीरे बढ़ रहा है। पूरा शरीर धधकने लगा है। इतनी कसमसाहट कि आगे
पाँव रखें तो पीछे आ जाए। उसने माथे पर चू रही पसीने की बूँदें उँगलियों से
पोंछ दी। चादरु के किनारे से माथा साफ किया। रास्ता कई घरों के
आँगन-पिछवाड़े से होता हुआ स्कूल तक जाता था। आश्चर्य हुआ कि कहीं भी कोई
आहट नहीं। न किसी के बतियाने की आवाज। न किसी बच्चे के खेलने या रोने का
शोर। जैसे एक गहरा सन्नाटा गाँव-बेड़ में पसर गया हो। कहीं कोई औरत दिखती
भी तो मुँह फेर लेती। मर्द एक अजीब सी हँसी हँस देते।
चाल आहिस्ता की। साँस फूल रहा था या दिल की धड़कनें बढ़ने लगी थी,
अन्तर नहीं कर पाई। सोचती रही कि पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ। वरना जब भी कोई
मिलता या देख लेता तो झटपट अठारह काम बताने लग जाता। शामा सभी के बताए काम
करती रहती। कभी किसी को मना नहीं करती। उनका चिक्कड़-गोबर फैंकती
भांडे-बर्तन माँजती। घास-पत्ती काटती, लाती। साल-फसल की कटाई में बराबर का
हाथ बँटाती। हारी-बीमारी में साथ। सुख-दु:ख में बराबर की भागीदारी। यानी
जिसकी जो मदद हो पाती, किया करती। इसमें अपना स्वार्थ भी होता। हर घर से
कुछ न कुछ मिल जाता। आई-चलाई चलती रहती। अपना पेट भर लेती।
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