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11.13.2007 |
राँग
नम्बर |
जिस
बात का मुझे डर था,
आखिर
वही होकर रही।
मैं
नाहीद को देख रहा था। उसने मेरे कोट के कंधे पर से बाल उठाया और हाथ
लम्बा करके फेंक दिया। फिर कोट के ऊपर-नीचे और पलटकर निगाह दौड़ाई।
शायद यह देखने के लिये कि यहाँ कोई और बाल तो नहीं है?
कोट
को अलमारी में टाँगने के बाद वह बावर्चीखाने में जाने के लिये पलटी तो
मैंने नाहीद के चेहरे के सारे नकुश पढ़ लिये। उसके चेहरे पर वह
मुस्कुराहट नहीं थी जिसे थोड़ी देर पहले मैंने देखा था,
जबकि
वह मेरी आवाज़ पर मेरा कोट लेने के लिये चली आयी थी। अगर नाहीद को आवाज़
देने से पहले मुझे अन्दाज़ा हो जाता कि मेरे कोट पर एक बड़ा बाल है,
या
नाहीद को आने में ज़रा-सी देर हो जाती,
तब
शायद ख़ुद ही उस बाल को निकाल देता और नाहीद को इल्म न होता। कुछ मिनटों
पहले उस टेलीग्राम की आमद के वाअस मेरा ज़हन किसी हद तक इधर-उधर हो गया
था और शायद इसलिये मुझे भी उस बाल की मौज़ूदगी का इल्म उस वक़्त हुआ जब
नाहीद कमरे के अन्दर आ चुकी थी। उसने कोट लेने के लिये हाथ बढ़ाया था और
मेरा हाथ कोट देने के लिये बढ़ चुका था। अचानक मैंने सोच लिया था कि अब
इसके बारे में मैं अनजान बन जाऊँगा। कौन अब उसे निकाले और यहाँ आने की
वज़ह बताये। मैंने समझा था कि वह छोटी सी चीज़ है,
नाहीद
की नज़रों से छुप जाएगी। लेकिन मेरा ख़्याल ग़लत निकला। कोट काला होता तो
बात निभ जाती। सफेदी के पसमंजर में कालिख भला काहे की छुपेगी।
इस
जवाब में मुझे बहुत-से सवाल मिल गए,
इसलिए
मैं ही यह कहना चाहता था,
”तुम
न कहोगी तो मैं ही कहूँगा। सो सुनो।”
लेकिन
मैं कुछ भी ना सुना सका क्योंकि उससे पहले मैं कुछ कहूँ,
फ़ोन
की घण्टी बजने लगी। मेरे ज़हेन पर नाख़ुशगुवार असरात आये और नाहीद के
चेहरे पर मैंने घबराहट के आसार देखे। इसलिए मैं उस जगह को छोड़कर फ़ोन
रसीव करने के लिए आगे बढ़ा। फ़ोन की मुसलसिल आवाज़ को सुनकर अपने-अपने
कमरों से दूसरे कुटुम्बी निकले।
ख़ालेदा दौड़ी हुई आई और बोली।--
“भैया!
मेरा फ़ोन होगा। एक क्लास-फ़ैलो लड़की के फ़ोन का इंतज़ार कर रही हूँ।”
नन्हा
फारूख़ दौड़ता हुआ आया और बोला--
“भाई
जान! आसिफ़
आपा
कह रहीं हैं कि अगर उनका फ़ोन है तो कह दें कि वह घर पर नहीं हैं।”
रशीद
ने ऊपर की मंज़िल की खिड़की खोली और ऊपर से चिल्लाया--
“भाई,
अगर
फ़ोन पर ोई डी को पूछे तो कह दो कि आज कम्पनी की मीटींग है। वह बहुत
देर से आएँगे।”
मैंने
रिसीवर उठाकर
‘हलो’
कहा।
किसी स्त्री की आवाज़ प्रकाश जौहरी से बात करना चाहती थी। मैं
चिल्लाया--”राँग
नम्बर प्लीज़। यह प्रकाश जौहरी की दुकान नहीं है मोहितरमा।”
सभी
ने मेरी झुँझलाहट का अन्दाज़ लगाया और मुस्कुराए। जब तक आसिफ़
आपा
भी बाहर आ गईं थीं। दीवार पर लगी हुई घड़ी में वक़्त देखती हुई बोलीं -
“अरे,
पाँच
बज गए,
लेकिन
उफ़!
गरमी
का तो यह हाल है जैसे अभी दो बजे हैं।”
फिर
वह नाहीद की तरफ़
मुख़ातिब होकर बोलीं--
“क्या
ख़याल है नाहीद! हम लोग सेहन में छिड़काव करके आज शाम यहीं बैठने का
इंतज़ाम कर लें।”
नाहीद
ने ताईद की।
मुझे
मालूम हो गया कि अब मैं नाहीद से तन्हाई में बात न कर सकूँगा। मैं आँगन
तक टहलता हुआ गया। गुलाब के फूल की झाड़ी में बहुत-से शगूफ़े मुस्कुरा
रहे थे। उनके क़रीब अपनी नाक ले जाकर लम्बी साँस ली। फिर अंगूर की बेल
की जानिब बढ़ा। हाथ बढ़ाकर एक ख़ुशा को तोड़ना चाहता था,
लेकिन
फ़ौरन हाथ खींच लिया। इसलिए नहीं कि अंगूर खट्ठे थे,
बल्कि
इसलिए कि मेरे दिमाग़
में
एक ताज़ा ख़याल की आमद थी।
फिर
यह ख़याल पक्का होकर फ़ैसला बन गया। उसे रुबा अमल लाने के लिए मैं फ़ोन
की जानिब बढ़ा। नम्बर डायल किये। इस बार भगत ही ने फ़ोन उठाया था। उससे
बातें करते हुए मैंने कहा--
“तुम
यक़ीन माना,
अगर
वह टेलिग्राम न आता तो मैं कम-से-कम एक हफ़्ता ज़रूर ठहरता और इस बीच में
तुमसे मुलाक़ात के मौके भी मिलते और मैं तुम्हारे सफ़र के हालात
सुनता...तुम्हें...मुझे नहीं मालूम,
कब
आऊँगा इसीलिए चाहता हूँ कि तुम आज और अभी मेरे यहाँ आ जाओ और...हाँ,
हलो
भगत
,
सुनो
यार! मेरी एक ख़वाहिश है। वह यह कि तुम उसी हालत और उसी ड्रेस में आओ
जिसमें मैंने अभी तीन घंटे पहले तुम्हें पाया था। प्लीज़ भगत! मेरी बात
मानना। मुझे एक कहानी का नुक़तए उरुज टटोलना है-- मैं बताऊँगा। मैं शोफ़र
से कह रहा हूँ कि वह मोटर ले जाए और आधे घंटे के अन्दर-अन्दर तुम्हें
ले आए। ओके...”
रिसीवर रखकर मैंने आसिफ़
आपा
को आवाज़ दी-
“आपा!
मेरा एक बेहतरीन दोस्त आज ही अमेरिका से वापिस आया है। मैंने रात को
उसे खाने पर बुलाया है। ज़रा ख़ास ख़याल रखिएगा,
प्लीज़!”
आसिफ़
आपा अक्सर मेरी मेहमान नवाज़ी पर तनज़िया जुम्ले कहा करती थीं,
लेकिन उस वक़्त उन्होंने एक मीठा-सा
‘अच्छा’
कहा।
नाहीद के
क़रीब जाकर मैंने कहा।
“चन्द
तल्ख़ घूँट अपने साथ मिठास लिए हुए,
मेरा मतलब है. स्ट्राँग चाय की दो प्यालियाँ।” फिर
आहिस्ता से बोला,
”लेकर
तुम्हीं आना। पन्द्रह-बीस मिनट बाद मैं पुकारूँगा, तब।”
मैं ऊपर
की मंज़िल पर चला गया। पच्चीस मिनट के बाद दूर से कार आती हुई दिखाई दी
तो मैं तेज़ी से नीचे आया और नाहीद को चाय लाने का इशारा करके
दीवानख़ाने में चला गया,
जहाँ मुझे भगत का ख़ैरमुक़द्दम करना था।
एक मिनट
में कार हमारी कोठी के अहाते में दाखिल हुई। भगत कार से उतरकर
दीवानख़ाने के अन्दर दाख़िल होने के लिए दरवाज़े की तरफ़
बढ़ रहा था। मैंने दरवाज़ा नहीं खोला,
बल्कि मकान के अन्दर खुलने वाले दरवाज़े में से झाँककर नाहीद को देखा।
एक ट्रे
में दो प्यालियाँ रखे नाहीद दरवाज़े की तरफ़
बढ़ रही थी। भगत ने दस्तक दी। मैंने तब भी दरवाज़ न खोला। दूसरे लम्हे
अन्दरूनी दरवाज़े की फ्रेम में नाहीद एक तस्वीर की तरह आ गई। मैंने कहा-
“अभी
यहाँ कोई नहीं आया है। अन्दर आ सकती हो नाहीद।”
नाहीद
अन्दर आ गयी तो मैंने फिर कहा--
“नाहीद
मैं चाहता हूँ कि तुम मेरे इस अजीज़ोतरीन दोस्त से मुतारिफ़
हो जाओ, मैं
दरवाज़ा खोल रहा हूँ।”
नाहीद ने
कहा,
”आसिफ़
आपा से पूछ के आती हूँ।”
किसी
कद्र मस्नुई नाराज़गी से मैंने कहा -
”आसिफ़
आपा से तुम्हारी शादी हो रही है क्या?
और आगे बढ़कर बाहर खुलने वाला दरवाज़ा खोल दिया। मुस्कुराता हुआ भगत खड़ा
था। मुझे देखते ही बोला -
“बहुत
बदहवास कर दिया मुझे तुमने फ़ोन पर! कपड़े बदलने की बात तो अलग रही,
मुझे पगड़ी बाँधने की भी मुहलत नहीं दी।”
मैंने
मुस्कुराकर ख़ैरमुक़द्दम करते हुए कहा--
मेरे
ख़्यालों का ताँता उस वक़्त टूटा जब नाहीद चाय की ट्रे
लेकर आयी और दरवाज़े के करीब पड़ी हुई तिपाई पर रख कर चली गई। नाहीद के
इस अन्दाज़ ने मुझे खटक जाने पर मजबूर किया। आज ख़िलाफ़े मामूल नाहीद ने
ट्रे रखकर
चाय क्यों नहीं बनाई?
मेरी तरफ़
मुस्कुराहट की एक दबी हुई लड़ी को लुढ़काकर उसने चाय की प्याली में दो
चमचे शक्कर क्यों नहीं डाली और क्यों मेरा यह जुमला सुनने का इन्तज़ार
नहीं किया-
“तुम्हारी
दी हुई मिठास की शह पाकर मैं अपने माहौल की तल्ख़ियों को पी जाता हूँ।”
नाहीद
लजाकर अपने पाँव के अँगूठे
से ज़मीन कुरेदती। फिर सिमटकर भाग जाती। कभी कोई जवाब देती
लेकिन उसके ख़ामोश दबे-दबे इशारे,
लजाहट और नज़रों के ज़ाविये,
ज़बान बनकर मुझसे बातें करते। और मुझे नाहीद की यही बातें पसंद हैं। मैं
इस लड़की से बेहद मोहब्बत करता हूँ। मैं इस लड़की से शादी करूँगा। यही
बात मैंने बचपन में कही थी। ख़ालेदा,
राशेदा और आसिफ़
आपा के साथ ख़ास घर के दूसरे लोगों ने भी उसे मज़ाक समझा था। फिर जब मैं
आई.ए.एस. के इम्तहान में कामयाब हो गया और डिप्टी कलेक्टर के ओहदे पर
फ़ायेज़ होकर ज़िला पर गया तो खानदान के सब लोगों ने यह समझ लिया कि अब
मैं किसी ऐसी लड़की से शादी करूँगा जो दहेज़ में अपने बैंक बैलन्स ही
नहीं,
मोटर-कार भी ले आए। मुझे इंकार करने का मौक़ा न मिला तो लोगों ने
अपने-अपने ख़्याल को यक़ीन की सूरत दे दी।
शायद यही
वजह थी कि इंतकाल से चन्द दिन पहले ख़ाला जान को नाहीद ही की फ़िक्र सता
रही थी। मैं जब उन्हें तसल्ली देने गया कि वह अच्छी हो जाएँगी तो
उन्होंने आँखों में आँसू भरकर पूछा था--
“अगर
मैं अच्छी ना हुई,
तो इस अकेली लड़की को दुनिया में कौन पूछेगा,
जिसका बाप भी नहीं और माँ भी नहीं?”
“ख़ाला
जान,”
मैं किसी कद्र जज़बाती होकर बोला था,
”नाहीद को अपना लेने का मेरा इरादा फ़ौलाद की तरह मज़बूत
है। अपने अन्दर बहुत तलाश करने के बाद मैंने इस बात का एहसास किया है
कि नाहीद मुझे बेइन्तेहा अच्छी लगती है।”
ख़ाला
जान ने मेरा हाथ पकड़ लिया था। मेरी पीठ पर हाथ फेरा था। इन्तेहाई
कमज़ोरी और बीमारी के बावजूद वह तरह-तरह से अपनी खुशी का इज़हार करतीं
रहीं। वह तस्वीर मेरी आँखों में महफ़ूज़ है। नाहीद के लिए उनकी तड़प
मुझसे देखी नहीं जाती थी। फिर वह मर गईं तो मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे
उनकी रूह सिमटकर मेरी आँखों में आ गई है। क्योंकि मैं जब भी नाहीद के
बारे में सोचा करता हूँ,
वह मेरे सामने आ जाती है।
अचानक
ख़ाला जान की रूह मँडराती हुई मेरी आँखों से सामने आई और मुझे याद
दिलाया कि नाहीद बहुत हस्सास लड़की है। छोटी-छोटी बातों का बहुत गहरा
असर लेती है। आप-ही-आप रोती है,
क्योंकि किसी से कुछ कहती नहीं। उसका अन्दर-ही-अन्दर यों कुढ़ना और हर
वक़्त सुलगती रहना ख़ाला जान की रूह को बेचैन रखेगा। इसीलिए चाय पी
लेने के बाद मैं यह ख़्याल लिए हुए अपने कमरे से बाहर निकाला कि नाहीद
को सचमुच बता दूँगा कि मेरे सफेद कोट पर लम्बा बाल कहाँ से आ गया।
बरामदे में से होकर मैं दलान में आया। दालान में आया तो मुझे यह देखकर
इत्मीनान हुआ कि घर के सब लोग अपने-अपने कमरों में हैं। दालान में अगर
कोई आवाज़ थी तो घड़ी की टिक`-टिक`
की। रेडियो भी ख़ामोश था और तिपाई पर रखा हुआ फ़ोन पंख फैलाये मरे हुए
कौवे की तरह मालूम हो रहा था। दालान से लगा हुआ नाहीद का कमरा था।
दरवाज़े के दोनों पटों को खुला देखकर मेरे दिल के हौसले बढ़ गए। मैं दबे
पाँव नाहीद के कमरे की तरफ़
गया। दरवाज़े पर खड़ा हुआ तो भी उसे मेरे आने की ख़बर न हुई।
नाहीद पलंग पर मुँह के बल लेट कर न जाने क्या सोचने में डूबी हुई थी।
उसे चौकन्ना करने के लिए मैंने दरवाज़े को आहिस्ता से धक्का दिया। जैसे
किसी कली को गुदगुदाने नसीम आई हो। मुझे देखा तो नाहीद हड़बड़ाकर उठी,
क्योंकि मेरे आने की तवक़्क़ो नहीं थी। मैंने नाहीद का चेहरा
देखा। चेहरा दिल और दिमाग़
का आईना होता है न...। मैंने उसे देखकर अन्दाज़ा लगाया कि नाहीद
के दिलो-दिमाग पर गरदोग़ुबार की बहुत सी तहें जम गई हैं। आँखें ऐसे
बादलों का पता देती हैं,
जिन्हें बरस जाने में ताम्मुल है तो खुल जाने में तकल्लुफ़।
पलंग पर
से उठकर नाहीद मेरे सामने एक सवाल की तरह खड़ी हो गई। मेरी मौजूदगी ने
उसमें न तो किसी गहरे ताज्जुब का एहसास पैदा किया और न मेरे आमद पर
उसके पास मझे
‘वेलकम’
करने के लिये अल्फ़ाज़ थे। जैसे वह लड़की नहीं,
किसी समंदर की ख़ामोश सतह है। मुझे उस लड़की के खोये हुए अंदाज़ पर बहुत
प्यार आता है और मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ,
जब मैं उसे पाकर खो जाऊँगा।
लेकिन
मैं अपने सूट पड़े हुए लम्बे बाल की बात कैसे बताऊँ। अगर मेरी बातों पर
उसे एतबार न आया तो,
लाख इज़हार के बावज़ूद बनावट का धोखा हो जाए तो?
बात
मैंने ही शुरू की और कहा-
”नाहीद,
अभी जो टेलीग्राम आया है,
वह हमारे कलेक्टर साहब का था। उन्होंने मुझे जल्द बुलाया है। सोच रहा
हूँ,
कल सुबह चला जाऊँगा।”
“ओह!
आप कल जा रहे हैं?”
“हाँ।”
मैंने कहा,
”यों अचानक प्रोग्राम ख़त्म हो जाने के कारण तुमसे
ज़्यादा बातें करने के मौके न मिल सकें। नाहीद,
तुम्हें मुझसे कुछ कहना है क्या?”
“नहीं।”
“मुझसे
कोई शिकायत है तो कह दो।”
अँगूठे
से ज़मीन कुरेदते हुए नाहीद ने कहा,
”शिकायत
करनेवाली मैं कौन?
आप जहाँ रहें,
ख़ुश रहें।”
“भगत!
इन्हीं का नाम नाहीद है। और नाहीद! यह मेरे ख़ास दोस्त डॉक्टर भगत है।
यह आज ही अमेरिका से डॉक्टरी की डिग्री लेकर आए हैं।”
भगत ने
नाहीद को सलाम किया और मुझसे कहा-
“यह
वही हैं न,
जिनके बारे में तुमने बहुत-कुछ मुझसे कहा था और लिखा भी था?”
मैंने
हाँ कहकर लाज से दोहरी होती हुई नाहीद को देखा जो प्यालियों को मेज़ पर
रख देने के बाद अपने बदन को समेटकर दीवार से जैसे चिपककर खड़ी थी। मैं
भगत से बोला--
“यार!
मैंने उज्लत इसलिए की ताकि तुमसे बहुत-सी बातें कर सकूँ
और गले मिलूँ।”
भगत
बोला--”तीन
बजे जब तुम आए थे,
मैं तुमसे गले मिल चुका हूँ।”
मैंने
कहा--”तो
क्या हुआ,
एक बार और सही।”
हम दोनों
एक-दूसरे से चिमट गए। अचानक मैं बहुत फुर्ती
से अलग होते हुए बोला -
“अरे
यह क्या है सरदारजी! तुम्हारे लम्बे बाल मेरे कन्धे पर किसी ग़लत नम्बर
पर मिले हुए फ़ोन की तरह चले आ रहे हैं। इन्हें संभालोगे नहीं तो...”
मैंने जुमला अधूरा ही छोड़ दिया।
नाहीद के
लिए अपनी हँसी को काबू में रखना मुश्किल हो गया। नक़रयी कहकहा बिखेरती
हुई वह दरवाज़े से अलग भाग गयी। मैंने मुस्कुराहट से लबरेज़ लहजे में
अपने अजीज़ दोस्त डॉक्टर पुरुषोत्तम सिंह भगत से कहा-
“यह
कहकहा ही एक छोटी-सी कहानी का नुफ़ए उरुज है,
जिसे पाने के लिए मैं बहुत कोशिश में था। बाद में सब बताऊँगा। पहले चाय
पियो,
ठंडी हो जायेगी!”
हस्सास=संवेदनशील;
शफ़ाफ=पारदर्शी;
पसमंज़र=पृष्ठभूमि:
ज़ाविए=कोण,
तिरछापन;
नुक़तए उरूज़=चरम
बिन्दु (क्लाइमैक्स);
मस्नुई=बनावटी;
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