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11.05.2007 |
प्रतिदान रंजना भाटिया |
धरा का रूप धरे
उजाला तुझ सूरज से पाती तेरे बिना सजना मैं श्याम वर्ण ही कहलाती पाती जो तेरे प्यार की तपिश तो हिमखण्ड ना बन पाती घूमती धुरी पर जैसे धरती युगों युगों तक साथ तेरा निभाती मन की अटल गहराई सिंधु सी हर पीड़ा को हर जाती सृष्टि के नव सृजन सी ख़ुद पर ही इठलाती कहाँ तलाशूँ तुमको मैं प्रीतम हर खोज एकाकी सी रह जाती घिरी इस दुनिया के मेले में तेरा कहीं ठौर तो पाती बेबस हुई मन की तरंगों से कुछ सवालों का जवाब बन जाती हाथ बढ़ा के थाम जो लेता तो अपने प्यार का प्रतिदान पा जाती !! |
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