अन्तरजाल पर साहित्य प्रेमियों की विश्राम स्थली |
![]() |
मुख्य पृष्ठ |
09.01.2007 |
वरदान मिले न मिले डॉ. राम सनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ |
अभिनन्दन कर जब वन्दनीय हो गया स्वयं
फिर क्या चिंता कोई वरदान मिले न मिले चाँदनी हमेशा गुजर गयी मेरे आँगन में आये बिन बंजर में जा बरसे बादल मेरी कुटिया पर छाये बिन दो हाथ अंधेरे से न हुए ऐसा कोई शुभ दिन न मिला जब अग्निशलाका बन कर जग में भभक उठा अब क्या चिंता नभ ज्योतिष्मान मिले न मिले अनगिन चिंतायें आ जातीं मेरी बाँहों में बनी- ठनी मेरे उपवन में उगती हैं केवल अभाव की नागफनी कंधे पर चढ़ा रहा बैताल दर्द का यह प्रतिक्षण प्रतिपल जब अँजुरी में ले पूरा सागर पी डाला अब सेतुबंध का वह अभियान मिले न मिले छल करती रहीं सदैव यहाँ मुझसे मेरी ही कुंठायें ले गयीं चुराकर हवनकुंड पूरा मेरी ही समिधायें मेरे भीतर की लंका को जलना था लेकिन जल न सकी प्रत्यंचा पर दिव्यास्त्र धर लिया है मैं ने फिर क्या चिंता कोई हनुमान मिले न मिले |
अपनी प्रतिक्रिया लेखक को भेजें
![]() |