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05.03.2012 |
व्यूह खामोशियों के राकेश खण्डेलवाल |
व्यूह खामोशियाँ हैं बनाये रहीं और मन उन से नजरें चुराता रहा अक्षरों में था मतभेद जुड़ न सके शब्द पा न सके वाक्य की वीथिका कुछ अलंकार षड़यंत्र रचते रहे कुछ ढिंढोरा बजाते रहे रीति का मानचित्रों की रेखायें धुँधली हुईं कोई पा न सका व्याकरण की गली भावनायें भटकती रहीं रात दिन रह गई अधखिली भाव की हर कली जेठ होंठ पे पपड़ी बना, बैठ कर नैन के सावनों को चिढ़ाता रहा स्वप्न थे रात के राह भटके हुए कुछ मुसाफिर जो आये नहीं लौट कर डयौढ़ियों पर नयन की चढ़े ही नहीं जो गये एक पल के लिये रुठ कर रात की स्याह चादर बिछाये हुए नींद अँगनाई बैठी प्रतीक्षित रही आया लेकिन नहीं एक दरवेश वो पीत की एक जिसने कहानी कही भोर का एक तारा मगर द्वार पर हो खड़ा, व्यंग्य से मुस्कुराता रहा दायरे परिचयों के हुए संकुचित बिम्ब अपने भी अब अजनबी हो गये कैगलियाँ थाम कर थे चले दो कदम आज पथ के निदेशक हमें हो गये स्वर निकल कर चला साज के तार से देहरी पार फिर भी नहीं कर सका राग याचक बने हाथ फैलाये थे एक धुन, गूँज कोई नहीं भर सका मौन फौलाद की एक दीवार का क्षेत्रफल हर घड़ी है बढ़ाता रहा वादियों में भ्रमण के लिये थी गई लौटी वापिस नहीं, ध्वनि वहीं खो गई और आवाज को खोजते खोजते एक निस्तब्धता अश्रु दो रो गई शेष कुछ भी नहीं जो कहें या सुनें माध्यमों से कटी आज अनुभूतियाँ और परिणाम है अंत में सामने बन चुकी हैं विजेता ये खामोशियाँ शब्द अपने गंवा, कंठ का स्वर लुटा बस अधर बेवजह थरथराता रहा |
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