.कई बार
सोचा क्या लिखूँ ?
किस तरह से लिखूँ?
कि वो बतला सकूँ
जो मेरे बोल नहीं कह पाते
कहीं
तो वो शब्द
वो अल्फ़ाज़ होंगे
जो मेरी बात का सही अर्थ
समझा सकेंगे उनको
जो मेरे बोलने को
सिर्फ बोलना सुन कर
अनसुना कर जाते है
क्या लिखूँ ?
कैसे लिखूँ ?
मेरी
भाषा सीधी है
सधी और स्पष्ट है
फिर भी
सुनने वाले
गलत ठहरा जाते हैं
आईने सा
सच कोई नहीं सुनना चाहता
कितने दोग़ले हैं लोग
तो क्या कहूँ उनसे ?
यही कि
हाँ …..हाँ …..
सही ….सही …..
सच ……सच …..
नहीं …….मैं तो
कम से कम ऐसी नहीं
मुझ में आत्मा है
जो मुझे मेरे
गलत पर कचोटती है
झँझोड़ती है
सवाल करती है ……
और
यदि कभी मैं
ये दोगला व्यवहार
कर भी पायी तो
मेरी अंतरात्मा मुझे जीने नहीं देगी
मुझ पर
हर पल प्रहार करेगी
धीरे-धीरे
मगर बुरी मौत देगी मुझे
नहीं……..
नहीं ……मुझे ये स्वीकार नहीं
मैं आईना बन
गलत सही सबकी नज़र में
मगर
अपनी निग़ाहों में मुझे
पाक़ ही नज़र आना है
एक आत्मा और
एक नेक इंसान नज़र आना है
हाँ
मुश्किल होता है
ऐसा जीवन
संघर्षों से भरा, काँटों से घिरा परन्तु
आत्मसंतुष्टि होती है
अपनी
नज़रों में अपनी इज़्ज़त होती है
सुकूं होता है
अपनी करनी की इबादत होती है
तब ज़िन्दगी
मुश्किल भले ही लगे पर
सच में वही ज़िन्दगी होती है
वही ज़िन्दगी होती है………