अन्तरजाल पर साहित्य प्रेमियों की विश्राम स्थली |
![]() |
मुख्य पृष्ठ |
03.28.2008 |
कभी न खत्म होने वाला सफर |
मैं सबसे
बातें कर रही हूँ। बच्चों से और औरतों से,
युवाओं से और बूढ़ों से भी। लेकिन लगता है जैसे वे मेरी भाषा नहीं समझ रहे
हैं। वे सब मेरी ओर देखते हैं,
तनिक सा मुस्कराते हैं और फिर लोहे को गर्म
करने और उसे हथौड़े से पीटने के कार्य में व्यस्त हो जाते हैं। वे सब
अपने-अपने कामों में व्यस्त हैं,
जैसे उन्हें हमसे कोई सरोकार नहीं है। सूरज बादलों के पीछे छिप गया है और
तपती धूप में तपते लोहे पर काम करने वाले ये नर-नारी थोड़ा ठंडापन महसूस
करते हैं। बहुत देर तक लोगों को काम करती देखती रहती हूँ। वहाँ सब लोग काम
कर रहे हैं,
चाहे वह आदमी हो या औरत,
छोटा हो या बड़ा,
युवा हो या वृद्ध। बच्चे भी इस काम में उनका हाथ बंटा रहे हैं। थोडा
आश्चर्य होता है और थोड़ा गर्व भी। जब देखती हूँ हौथड़े हाथ में लिये गर्म
लाल लोहे को पीट रही हैं। सहसा बचपन में पढ़ी हुई अंग्रेजी कविता की
पंक्तियाँ याद आ जाती है,
जो
हर पढ़े-लिखे
व्यक्ति
द्वारा रोजाना प्रयोग में आने वाला मुहावरा बन गया है -
“हिट
व्हेन दा आयरन इज हâट”।
इन भोले-भाले और अनपढ़ लोगों ने बिना पढ़े
ही
इस मुहावरे के तथ्य को जैसे अपने जीवन में आत्मसात कर लिया है।
मैं अपने
आजू-बाजू
देखती हूँ। कहीं मेरे पति दिखाई नहीं देते। बाँई ओर थोड़ी दूर चले गये हैं,
वह
और अपने कैमरे से खेल रहे हैं। वे एक नवयुवती का चित्र ले रहे हैं,
वे
उस युवती से बातें भी कर रहे हैं। शायद वह भी उनसे बातें कर रही है। मैं
घूमती हूँ और तेजी से दौड़कर उस लड़की के पास पहुँचती हूँ,
जो
मेरे पति से बातचीत करने में व्यस्त है। मेरे पहुँचते ही बात करना बंद कर
दिया है और वह अपने तम्बू की ओर जाने लगती है। मैं उस लड़की से बातचीत करना
चाहती हूँ,
करती भी हूँ,
पर
वह जवाब नहीं देती है। बिल्कुल ठेठ गाँव वाले अंदाज में हिन्दी बोलने का
प्रयास करती हूँ मैं। उम्मीद में हूँ कि शायद वह मेरी बातों का जवाब दे,
मुझसे बातचीत करे। हम उसके साथ-साथ तम्बू तक पहुँचते है। बहुत सारे तम्बू
लगे हैं,
वहाँ और बहुत सारे परिवार भी उन तम्बुओं में रहते हैं। वह हमें एक टूटी सी
चारपाई पर बैठने का संकेत करती है। वह अब कुछ स्वाभाविक हो गई लगती है।
मेरी उम्मीद बढ़ जाती है कि अब वह मुझसे बात करेगी। वातावरण को अधिक सरल और
स्वाभाविक बनाने के उद्देश्य से शायद मेरे पति गिलास भर पीने का पानी
माँगते है। पानी से भरा एक लोटा ले आती है। मेरे पति लोटे को अपने हाथ में
लेकर पानी पीने लगे हैं। वह दूसरा लोटा मेरे लिये लाती है। मैं भी पानी
पीने लगती हूँ। कोटा से कोई
5
मील दूर झालावाड़ रोड पर लगे गाड़िया लोहारों के शिविर का एक दृश्य है। कितने
और भी दृश्य हैं,
परन्तु मैं केवल इस दृश्य में ही शामिल हूँ। वर्षों हो गये इस शिविर को
देखे हुए,
परन्तु आज भी जैसे एक-एक चीज मुझे याद है। मैं अपना सवाल दोहराती हूँ और उस
लड़की की ओर देखकर पूछती हूँ।
“क्या
नाम है तुम्हारा?”
वह
तनिक रुकती है और फिर बोलने लगती है,
“बन्तो,
क्या तुम जानती हो बन्तो क्या होता है?”
वह
शायद यह महसूस करती है कि हम उसकी भाषा समझ नहीं पा रहे हैं और फिर कहना
शुरू करती है
“मेरा
असली नाम वन-तोती है,
जंगल की मादा तोती। मेरे पति ने मेरे नाम को काटकर छोटा कर दिया और वन-तोती
की जगह केवल बन्तो बोलने लगा है। गये साल वह मर गया। मेरे पास उसकी निशानी
स्वरूप एक छोटा सा बच्चा है,
जो
उसकी मौत के बाद पैदा हुआ।”
वह
शांत हो जाती है और कुछ गंभीर भी। शायद अपने स्वर्गीय पति की मधुर यादों ने
उसे झकझोर दिया हो। उसकी त्रासदी पर मुझे दुख होता है। विषय परिवर्तन के
लिये मेरे पति मेरी मदद के लिये आते हैं औेर गाड़िया लोहारों के रीति-रिवाज
और संस्कार तथा जीवन की दिनचर्या
के
बारे मं पूछते हैं ओर कुछ अपनी ओर से बताते हैं। इस दौरान बन्तो फिर कुछ
स्वाभाविक सी होती है-
“वह
मुझसे बहुत प्यार करते थे”,
वह
अपने स्वर्गीय पति के बारे में बताती है। मुझे तसल्ली है कि वह अब फिर
बोलने लायक स्वाभाविक हो गई है। मैं पूछती हूँ कि
“तुम्हारी
शादी कैसे हुई?
उसने तुम्हें पसंद किया या तुमने उसे?”
बन्तो तुरंत बोली-
“नहीं-नहीं,
किसी को किसी के पसंद करने का सवाल नहीं। हम दोनों ने एक-दूसरे को पहचाना।
इसी सड़क पर,
शायद यहीं और थोड़ा आगे हमारा केम्प लगा था। उसका परिवार भी हमारे डेरे में
आ मिला। वह कई बार मेरे पास आता और मैं भी कई बार उसके पास जाती। थोड़े ही
दिनों में हम दोनों एक-दूसरे को चाहने लगे। मुझे याद है कि एक बार होली के
दिन वह हमारे यहाँ रंग खेलने आया और उसने शादी का प्रस्ताव रख दिया। मैं
उसे अपने बाबा के पास ले गई और उन्होंने इन्कार नहीं किया। दूसरे दिन ही
हमारी शादी हो गई। तभी से उसका परिवार और हमारा परिवार साथ-साथ हो गया और
जहाँ भी जाते हैं,
साथ-साथ जाते हैं। एक साथ कैम्प करते हैं।”
वह
कुछ गंभीर हो गई,
लेकिन तुरंत ही खिल-खिलाकर हँसी और तुरंत अपनी जुवान में बोली,
“या
ही म्हारा मायका,
या
ही म्हारी ससुराल”
मैं पूछती हूँ वह दोबारा शादी नहीं कर सकती। बंतो थोड़ा सा मुस्कराई,
“हाँ
शायद उसके छोटे भाई से मेरी शादी हो जाय। कुछ दिन पहले उसकी बड़ी दादी मेरी
बाबा से बातचीत कर गई है और वे इसके लिये तैयार हैं। अब मैं भी अपने भावी
पति से चर्चा करूँगी कि वह भी इस शादी के लिये तैयार है या नहीं?
अगर वह हामी भरता है तो मैं भी तैयार हूँ। वह भी बहुत अच्छा है,
बिल्कुल अपनी भाई की तरह।”
वह
अपने कैम्प से बाहर ले आई है और हम फिर देखते हैं,
वहाँ सब लोग अपने-अपने काम में व्यस्त हैं। एक मेला सा लगा है,
वहाँ। वह हमें हर जगह घुमाती है और अपनी भाषा में उन सब लोगों को हमारा
परिचय देती जा रही है। मैं बन्तो के बाबा से मिलती हूँ और उसकी बड़ी सास से
भी। बन्तो मेरे कान में धीरे से कहती है कि मैं उसकी दूसरी शादी की चर्चा न
करूँ। और मैं स्वीकृति में अपना सिर हिला देती हूँ। बाबा आधी बाँह की बण्डी
और घुटने तक की धोती पहने हैं। सिर पर विशेष आकृति लिये हुए साफा बंधा हुआ
है। बाबा के पास ही एक नौजवान खड़ा है,
जिसका सिर एकदम घोटमघोट और बीच में एक लम्बी चोंटी। सोचती हूँ कहीं यह
बन्तो का भावी पति तो नहीं है। मैंने उस नवजवान की ओर देखा और फिर बंतो की
ओर। बंतों ने शायद मेरे हृदय की बात जान ली। वह तनिक शरमायी और मुस्कराई,
जैसे कह रही हो,
“हाँ
यही मेरे स्वर्गीय पति का छोटा भाई है,
मेरा भावी पति,
जिससे मेरी शादी की बात तय समझें।
बन्तो के
बाबा बहुत मजेदार आदमी लगे। उनकी बातों से मुझे लगा कि वे उम्र में चाहे
60
पार कर चुके हों,
मगर भावना और विचारधारा युवा जैसी है। मैंने उन्हें याद दिलाया कि उनके
पूर्वज महाराणा प्रताप के वशंज थे,
जिन्होंने मातृभूमि की स्वतंत्रा के लिये अपना
सुख और ऐश्वर्य न्यौछावर कर दिया और जिन्हें भारत का इतिहास कभी
नहीं भूल सकता। उन्हें अपने वंशजों की महानता सुनकर प्रसन्नता अवश्य हुई
लेकिन उन्होंने कहा,
“अब
हम अपने जीवन की गति पर प्रसन्न हैं। यह अनोखी है। हमें अपने जीवन के
तरीकों पर गर्व है। हम एक जगह पर नहीं रहते। एक जगह से दूसरी जगह पर घूमते
ही रहते हैं। जैसे चलना ही अब हमारा जीवन बन गया है। इस प्रकार हम तरह तरह
के लोगों से मिलते हैं और विभिन्न संस्कृतियों को देखते हैं। जीवन की
एकरसता से दूर यह विविधता हमें सदैव आगे बढ़ने के लिये प्रेरणा देती रहती
है। हमारा यह कभी खत्म न होने वाला सफर मानव जीवन की यात्रा का प्रतीक है
कि धरती पर कोई भी चीज अक्षुण्ण और स्थायी नहीं है। क्या इसमें भी कोई मजा
है कि हम एक घर बना लें और रूटीन तरीके से ज़िंदगी जीकर मर जाएँ?”
मैंने देखा कि बाबा की भावनाओं को स्वीकृति प्रदान करता हुआ एक नवयुवक आगे
आया और बोला,
“जी
हाँ,
हम
जानते हैं कि हमारे पहले प्रधानमंत्री नेहरूजी ने हमें मेवाड़ में बस जाने
का न्यौता दिया था। मगर साहब,
हमारा अपना दर्शन है कि हमारी इस यात्रा का कोई अंत नहीं है चाहे उसमें
पड़ाव कितने भी हों।”
मनकू नाम था उस लड़के का जो मेरे हिसाब से बहुत अच्छी हिन्दी बोल रहा था।
मैंने पूछा,
एक
जगह से दूसरी जगह तक हमेशा घूमना कैसा लगता है?
मनकू ने जवाब दिया कि
“घूमते
रहना बहुत अच्छा है। अब तो यह हमारी आदत ही बन गई है। हम एक जगह एक दो
महीने से ज्यादा नहीं ठहरते। जीवन के विविध रंग उनको देखने को मिलते हैं।
“एक
दिन में तुम लोग कितना कमा लेते हो?”
यह
प्रश्न मेरे पति ने पूछा और मुझे लगा कि यह सवाल मनकू को पसंद नहीं आया। वह
जैसे फूट पड़ा,
“हम
पैसे क पीछे नहीं भागते साहब। हमको खाने और पीने के लिये काफी मिल जाय,
बस
यही ठीक है। और जी हाँ,
हमें खाने-पीने लायक मिल जाता है। आप देख रहे हैं कि हम सब आदमी-औरत,
बच्चे-बुड्ढे
दिन भर मेहनत करते हैं और हमें तसल्ली है कि हम अपनी मेहनत से गुजारे लायक
कमा लेते हैं।”
मनकू का गुस्सा ठंडा करने के लिये मैंने विषय बदल दिया और पूछा कि उन्हें
शादी या अन्य किसी कार्यक्रम की व्यवस्था में कोई दिक्कत तो नहीं आती?
अब
बंतों के बाबा का नंबर था,
जो
बोले,
“नहीं
हमें कोई दिक्कत नहीं आती। यहीं शादियाँ होती हैं और यही मृत्यु के बाद के
अंतिम संस्कार। यहीं बच्चे पैदा होते हैं और यहीं हम अपने त्यौहार मनाते
हैं।”
बाबा के पास से उठकर हम लोग फिर वनतोती के पास आ गये। जब तक हम बाबा से बात
करते रहे बंतोती ने अपने कपड़े बदल लिये थे। उसकी सारी वेशभूषा रंग-बिरंगी
थी- उसकी चोली,
उसकी फरिहा और उसका घाघरा सब रंग-बिरंगा था,
वह
अपनी एक सहेली से बातचीत कर रही थी,
जो
बड़ी-बड़ी चपातियाँ बनाने में व्यस्त थी। बातचीत में उन्होंने हमें बताया
कि वे जब शहर में लोहे का सामान बेचने जाती हैं तो कभी-कभी सिनेमा भी देख
लेती हैं और किसी होटल में चाय भी पीती हैं। हमारे वहाँ पहुँचने से पहले
बंतोती की सहेली रोटी बनाते-बनाते एक गीत गुनगुना रही थी जिसके बारे में
मैंने पूछा कि यह गीत क्या था?
तो
बंतोती ने आगे बढ़कर उस गीत का सारा भाव मुझे सुना दिया : एक नई नवेली
दुल्हन अपने दूल्हा से कह रही है कि मुझे भूल मत जाना,
जब
तुम काम कर रहे हो तो भी मुझे याद करना। मैं तुम्हारे पास चली आऊँगी। जब तक
मैं ज़िंदा रहूँ किसी दूसरी औरत से शादी मत करना। मैं तुम्हें हृदय से प्यार
करती हूँ और तुम भी उतना ही प्यार करते रहो। तुम्हारे सुख एवं दुख में
हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी। मैं यहीं रहूँगी और कहीं नहीं जाउंगी।”
बंतोती खुलकर हँस पड़ी और बोली,
“जाएगी
भी तो कहाँ जाएगी~?
याही तो म्हारा मायका,
याही म्हारी ससुराल।”
बंतोती से बिदा लेते समय मेरा दिल और दिमाग कुछ भारी हो आया और मैं सोचने
लगी कि कैसा है इनका जीवन और कैसा है इनका जीवन दर्शन- अनेकता और विविधता
से भरा हुआ। |
अपनी प्रतिक्रिया लेखक को भेजें
![]() |