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03.28.2008 |
लोक संस्कृति का पावन पर्व -
‘होली’ |
होली
भारतीय संस्कृति का पावन पर्व है। होली के इस रंग-बिरंगे त्यौहार में हमारी
लोक संस्कृति मुखरित होती है। सभी जाति और वर्ग
के
लोग इस पर्व में खुशी और उल्लास के साथ सम्मिलित होते हैं। जाति,
धर्म
और
वर्ग-वर्ण
की
अनेक विविधताओं के बावजूद भारतवर्ष
में होली का स्वरूप ज्यों का त्यों विद्यमान है। अनेकता में एकता का यह
पर्व सद्भावना,
सहृदयता और शुभकामनाओं का त्यौहार है। बसंत पंचमी से लेकर,
होली के दिन तक चालीस दिन का यह उत्सव धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।
होली के
इस पावन पर्व में हमें वैदिक संस्कृति के भी दर्शन होते हैं। होली पर होने
वाला अग्निदाह और घर-घर में सम्पन्न होने वाला होली का लघु संस्करण वैदिक
यज्ञों का व्यापक और विस्तृत रूप है। अग्नि पूजा विधान वेदों से ही प्रचलित
माना जाता है। अन्य माँगलिक पर्वों
पर
भी हमारे देश में अग्नि पूजा की जाती है। वृहद भोज की व्यवस्था में सबसे
पहले चूल्हे या भट्ठी की अग्नि को भोजन कराया जाता है। विवाह के अवसर पर
अग्नि की परिक्रमा आज भी हमारे लोक जीवन का प्रकाशित अध्याय है।
होली के
अवसर पर गाये जाने वाले गीत और लोकगीतों में वेदों की ऋचाओं का संगीत
गूँजता है। कुछ संस्कृत विद्वानों ने तो हमारे लोकगीतों को वैदिक मंत्रों
का उत्तराधिकारी बताया है। यह लोकगीत भी वेद मंत्रों के समान ही सामूहिक
रूप से गाये जाते हैं। वैदिक संस्कृति में मदनोत्सव के त्योहार के दर्शन
होते हैं। हमारी होली के त्योहर में यदा-कदा अश्लीलता के छीटें कदाचित
वैदिक मदनोत्सव का ही भागता हुआ रूप है। वैदिक संस्कृति आज भी हमारी लोक
संस्कृति का आवश्यक अंग बनी हुई है। चालीस दिन तक गली-मोहल्ले के
बच्चों-किशोरों द्वारा जंगल से लकड़ियाँ लाना और होलिका दहन की तैयारी करना
आज भी हमारे देश में गाँव-गाँव में प्रचलित दृश्य बन गये हैं। यह सब हमारी
लोक संस्कृति के महत्वपूर्ण
तथ्य हैं।
मोहल्ले के अनेक बच्चे और युवक मिलकर लोक संस्कृति के इस कार्य में भाग लेते हैं। घर-घर से लकड़ियाँ एकत्रित करना और अपने घरों में गोबर की गुलेरियों की माला तथा गोबर के ही ढाल-तलवार बनाकर होलिका दहन में चढ़ाना हमारी लोक संस्कृति को उद्घाटित करते हैं। होली के आस-पास रंगोली चित्रित करना, रंग भरी पिचकारी चलाना और अबीर तथा गुलाल उड़ाना एवं आपस में मिष्ठान आदि का वितरण हमारे पारस्परिक प्रेम और सद्भावना को प्रकट करते हैं। आज भी छोटे कस्बों में होली के दिन यह प्रथा दृष्टिगत होती है कि उम्र में छोटे लोग अपने से बड़े लोगों के पाँवों में गुलाल लगाते हैं। बड़ों के प्रति आदर और सत्कार की यह भावना हमारी लोक संस्कृति का दर्पण है। होली के सांस्कृतिक पर्व में हमारी लोक संस्कृति की मान्यताएँ बोलती हैं। किसी पर रंग डालकर या गुलाल लगाकर हम उन्हें अपनत्व का परिचय देते हैं। प्राचीनकाल में होली के पर्व पर गले मिलने की प्रथा थी, जो हमारे लोक पर्व की आत्मा को उद्घाटित करती है। होली हमारी संस्कृति का पावन पर्व बन गया है। |
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