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05.19.2012 |
पहाड़ मेरा दोस्त
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23.11.2003 आफिस। मेज के ठीक सामने खिड़की। खिड़की के सामने पहाड़। पहाड़ चुप। मैं चुप। पहाड़ मुझे देखता है। मैं पहाड़ को। पहाड़ अपने आप में गुम। मैं अपने आप में। पहाड़ कुछ कहना चाहता है। नहीं कह पाता। मैं कुछ सुनना चाहता हूँ। नहीं सुन पा रहा। उसकी ज़बान कुछ कहती है। मेरे कान नहीं सुन पाते। पहाड़ की आँखें ख़ामोशी से कुछ गाने लगती हैं। मेरी आँखें सुनने लगती हैं। पहाड़ का ख़ामोश संगीत बरसने लगता है। बारिश खिड़की के अंदर आ चुकी है। मैं पूरी तरह से भीग चुका हूँ। फिर भी ख़ामोश हूँ। ख़ामोशी गीत सुन रही है। पहाड़ गा रहा है। मैं भीग रहा हूँ। भीगते-भीगते गलने लगता हूँ। बूँदे बन गया हूँ। बूँदे पहाड़ पे बरसने लगीं। टप टप टप। झम झम झम। पहाड़ खुश होने लगा। मुस्कुराने लगा। बूँदे सुर्मई रंग में हँसने लगी। मैं मुस्कुराने लगा। पहाड़ ने पहली बार ज़बान खोली। “देास्त वर्षों से यह ख़ामोश खिड़की देखता हूँ। देखता हूँ खिड़की के पार की मेज। मेज के उस पार की एक जोड़ी आँखें। आँखों के उस पार पहाड़। निचाट नंगी चटटानों का पहाड़। जिसमें कभी कोई झरना नहीं बहता। कोई नदी नाला नहीं बहता। कभी हरियाली नहीं पनपती। दोस्त तुम इस पहाड़ के साथ-साथ जी रहे हो। या तुम भी एक पहाड़ ही हो।” मैं बरसने लगता हूँ। ज़ोर-ज़ोर से। मेज भीगने लगी। खिड़की भीगने लगी। पहाड़ घबड़ाने लगा मैं सिसकने लगा। मैं सिसकन बन गया। सिसकन शब्द बन गये। शब्द बूँदे बनती रहीं। बूँदे बरसती रहीं। बूँदे पहाड़ पे गिरने लगी। पहाड़ आश्वस्त हुआ। पहाड़ सुनने लगा। “दोस्त दुखी मत हो। तुमने तो सही कहा। तुमने वही पूछा जो तुमने देखा। जो जाना। जो महसूसा। सचमुच मैं भी एक पहाड़ हूँ। निचाट पहाड़। नंगी चट्टानों का। बिना झरने का। बिना हरियाली का पर मैं हमेशा ऐसा नहीं था। मैं एक इंसान था। मेरी आँखों में भी झरने बहते थे। मासूम झरने। कभी मेरी पीठ पर भी उम्मीद के जंगल उगा करते थे। हरे भरे। उस जंगल में पेड़ थे चीड़ के देवदार के अशोक के महुआ महोगनी के और न जाने किस-किस के। जंगल घना था पर डराता न था। झाड़ियाँ थी नागफनी की, देवदर की, बाँस की, बेर की, बेशरम की, घनी-घनी पर उलझाती न थीं। जानवर थे शेर, चीता, भालू, हाथी वे हिंसक थे पर पेट भरने तक। बेहद ठंडी ख़ामोशी थी पर उसमें संगीत रहता। झींगुरों का सूँ सूँ सूँ; भँवरो का हूँ हूँ हूँ; कोयल की कूँ कूँ कूँ। उसी जंगल में मेरी मुहब्बत भी रहती थी। हिरनी जैसी आँखें। मासूम। रंग चंपई। गाल गुलाब। जुल्फें आबनूस। वह कुलाँचे भरती मेरी पीठ पर। गाना गाती कोयल सी। मैं मुस्कुराता वह खिलखिलाती। मैं उसे पकड़ता वह भागती। झाड़ियों में छुप जाती। मैं उसे पुकारता वह न बोलती। मैं घबराता उसे ढूँढता जगह-जगह। अचानक बादलों के धूप सी खिलती। मुझसे लिपट जाती। बरगद और बेल। दोनों खुश हो जाते।“ पहाड़ ने अपनी साँसें रोक लीं। ध्यान से सुनने
लगा। मैं भी कहता रहा - मैं चलने लगा। आगे बढ़ने लगा। आगे और आगे। धीरे-धीरे आँखों से ओझल होने लगी मेरी मुहब्ब्त - मासूम और खूबसूरत। ओझल होने लगा जंगल घना और हरा भरा। रास्ता। मीलों लम्बा। न कोई ओर न कोई छोर। दूर चमकती चीज़ आकर्षित कर रही थी। मैं दौड़ने लगा। तेज़ और तेज़। मैं हाँफने लगा। पसीने-पसीने हो गया। पर बढ़ता रहा, बढ़ता रहा। अब तक रास्ते के दोनों ओर एक और जंगल उग आया था। जंगल कंक्रीट का जिसमें टेढ़े मेढ़े रास्ते थे। घने और भीड़ से भरे। जिसमें मेरे जैसे न जाने कितने और लोग भी दौड़ रहे थे। हाँफ रहे थे। चमकती चीज़ के लिये। पर वह चमकती चीज़ हर बर हमारे हाथों से दूर हो जाती। कभी हाथों में आके फिसल जाती, कभी मुठठी से अपने-आप गायब हो जाती। पर हर नाकामयाबी के बाद फिर पूरी ताकत से उसके पीछे भागने लगता। अजब माहौल था आँख मिचौली का। कभी मंज़िल रास्ता बन जाता कभी रास्ता मंज़िल। कभी वही रास्ता जंगल बन मेरी पीठ पे सवार हो जाता। फिर वह जंगल बाज़ार बन जाता। बाज़ार भीड़ बन जाता। भीड़ भागती भीड़। चमकती चीज़ के पीछे भागती भीड़। मैं बाज़ार को अपनी पीठ पे लादे भागता रहता। तेज़ और तेज़ और तेज़। पसीना माथे से चू पैर तक आ गया था। मैं थकने लगा था। कदम लड़खड़ाने लगे थे। फिर भी बढ़ता जा रहा था। और एक दिन थोड़ी सी चमक पा ही ली। मैं खुश हो गया। नाचने लगा। पागल हो गया। पीठ पर ही जगंल लादे, बाज़ार लादे, भीड़ लादे वापस चल दिया। जंगल की तरफ़। अपनी मुहब्बत की तरफ़।” पहाड़ ने अपनी साँसे रोक लीं। मैं आगे कहता रहा
- मेरे चुप होने के पहले ही पहाड़ सिसकने लगा।
मैं हैरान। पूछा - यह सुन पहाड़ की सिसकन हिचकियाँ बन गयीं।
हिचकियाँ बूँदे बन गयी बूदें बादल बन गये। बादलों ने मुझे बाँहों में
ले लिया। बादल दुलराने लगे। हवा जुल्फ़ें सँवारने लगी। पहाड़ कहने लगा।
मैं सुनने लगा.. यह कह के पहाड़ चुप हो गया। एक मुर्दा ख़ामोशी के साथ। मैं बूँद बूँद रिस रहा था बादलों के बाँहों से पहाड़ की गोद में। खिड़की अभी भी खुली थी। मेज के ठीक सामने। आफिस में। 12,12,2003 आफिस। मेज के ठीक सामने की खिड़की आज भी खुली है। पहाड़ भी, उसी तरह खड़ा है। हर रोज़ सा। पर, पहाड़ चुप है। कई दिनों से। चुप पहले भी रहता था। पर अक्सर ख़ामोशी बतियाती थी। पौधों के हिलने से, हवाओं के चलने से, चिड़ियों के चहकने से, बादलों के गरजने से। पहाड़ ही नहीं पूरी कायनात चुप है। सूरज अपनी रोशनी फैला धीरे-धीरे हाँफ रहा है। किन्तु किरणों में वह तेज़ी नहीं है। जो होनी चाहिये। छोटी से छोटी पत्तियों ने भी अपनी हरकतें बंद कर रखी है। सफेद बादलों ने दूर कहीं आसमान में अपना मुखड़ा छुपा रखा है। जो बिन पानी के रुई के फाहों से दूर कहीं उड़ते चले जा रहे हैं। ख़ामोशी से। पहाड़ मुझे देखता है। मैं पहाड़ को। पहाड़ चुप है। मैं चुप। पहाड़ अंदाज़ा लगा रहा है। मैं क्या सोच रहा हूँ। मैं अंदाज़ा लगाता हूँ वह क्या सोच रहा होगा। मेरी आँखें पहाड़ की आँखों को देखती है। पहाड़ की आँखें मेरी आँखों को। दो चाहने वाले आँखों ही आँखों में एक दूसरे को सब कुछ बता देना चाहते हों। कह देना चाहते हों। साँस-साँस एक हो जाना चाहते हों। जब काफी देर हो गयी तो आज भी पहाड़ ने ही चुप्पी तोड़ी। “दोस्त- मैं देखता हूँ तुम अक्सर इसी तरह ख़ामोश घंटों मुझे देखते रहते हो। बिना कुछ बोले। आखिर तुम मेरी इन नंगी पथरीली चट्टानों में क्या खोजते रहते हो। इन घने पेड़ों के बीच तुम्हें क्या दिखायी पड़ता है। या इन हवाओं में कौन सा संगीत सुनायी देता रहता है।“ पहाड़ यह कह चुप हो गया। मैं फिर भी मुस्कुराता
हूँ। मन ही मन शब्दों को स्वरूप देने लगता हूँ। बात कहाँ से शुरू करूँ।
पहाड़ मेरे उत्तर का इंतज़ार कर रहा है। मैं बोलने लगा- पहाड़ सुनने लगा
– पहाड़ की मुस्कुराहट कहीं खो गयी। शायद दुखी हो गया। शायद यादों में खो गया। शायद कुछ सोचने लगा। शायद मेरी तरह शब्दों को एक तारतम्य देने लगा। पर मैं इन सभी उहापोह से निर्विकार उत्तर की प्रतीक्षा में उसे देखता हूँ। सन्नाटा हमेशा की तरह, बिन रुके अपना संगीत बिखेर रहा है साँय-साँय। शावक रोशनी से डरे अपनी खोहों में या झाड़ियों में छुपे हैं। कुछ गिलहरियाँ पत्तियों में छुपी हैं। एक नज़दीक के पेड़ की डाल पे बैठी बटन सी आँखों से टुकुर-टुकुर ताक रही है। अचानक झाड़ियों में कूदी और खड़खड़ की आवाज़ हो कर शांत हो गयी। तभी पहाड़ ने अपने शब्द हवा में उछाले। मेरे कान व पहाड़ के शब्द गलबहियाँ करने लगे। “दोस्त - यह सही है। मैं यहीं और इसी जगह खड़ा हूँ वर्षों से सदियों से न जाने कब से। हो सकता है जब पृथ्वी ने जनम लिया हो तब से। यह भी सच है कि मैं पत्थर हूँ। पर यह भी सच है मेरे अंदर भी दिल है जो धड़कता है इन मासूम शावको में गिलहरियों में चिड़ियों में हिरणों में इन छोटे व बड़े सभी जानवरों में। सूरज हँसता है तो मैं भी हँसता हूँ। चाँद मुस्कुराता है तो मैं भी मुस्कुराता हूँ। हवाएँ चलती हैं तो मैं गाता हूँ। फूल खिलते हैं तो मैं गुनगुनाता हूँ। बतियाता हूँ इन भँवरों से इन कलियों से इन सितारों से इन अँधेरी रातों से। पर दोस्त, अफसोस- तुम यह सब देख ही नहीं पाते हो। क्योंकि तुम बोझ से दबे हुए हो। क्योंकि तुम्हारी नज़रें झुकी हुयी हैं। क्योंकि तुम्हारी पीठ पर एक और पहाड़ उग आया है। क्योंकि तुम्हारी नज़रें साफ-साफ नहीं देख पार ही हैं। क्योंकि अभी भी तुम बाज़ार के मोह-जाल से नहीं निकल पा रहे हो। क्योंकि तुम्हारी नज़रें अभी भी उस चमकीली चीज़ की रोशनी में चुंधिया रही हैं। जिसको पाने की लालसा में अपनी मुहब्बत खो बैठे हो। अपना सुख शांति सभी कुछ खो बैठे हो। शायद तुम्हें न याद हो पर यह सच है जब तक तुम मेरी गोद में हँसते थे, खेलते थे, अठखेलियाँ करते थे, तब तक तुमने कभी भी ऐसा सवाल नहीं किया था। क्योंकि तब तक तुम भी इस पहाड़ का हिस्सा थे। इन पेड़ों में तुम्हारी जान बसती थी। इन मासूम जानवरों के दिलों में तुम बसते थे। इन चट्टानों को जिन्हें तुम अब पत्थर कहते हो उनपे बैठ घंटों तारों को निहारते थे। हवाओं को महसूसते थे। तुम अपने आप को इन नज़ारों इन फिजाओं से अलग नहीं समझते थे। अपने आपको इस प्रकृति का हिस्सा समझते थे। तब तक तुम कभी इस तरह की बाते नहीं करते थे।” मेरी नज़रें अपराधी की तरह झुक गयीं। पहाड़ उलाहना देता ही रहा ’दोस्त जंगल छोड़ने के बाद से, पहाड़ छोड़ने के बाद से तुमने तो हम लोगों से नाता ही तोड़ लिया था। तुम अपने आप में खोते चले गये अपनी सभ्यता के नशे में चूर होते गये। तुम्हें लगा तुम तो इस बेजान पहाड़ से भी बड़े हो। तुम खुदा से भी बड़े हो। तुम आकाश से भी ऊँचे हो। पर यहीं तुम चूक गये। तुम भूल गये कि प्रकृति से बड़ा तो कुछ भी नहीं होता न दुख न सुख न पाप न पुण्य न घर न बाहर न सभ्यता न संस्कृति। तुम अपने अभिमान में हम सभी की उपेक्षा करने लगे। धीरे-धीरे हम लोगों से दूर होते चले गये दूर होते चले गये। और एक दिन तुमको मैं सिर्फ़ एक पहाड़ नज़र आने लगा। हवाओं को पौधों के हिलने का प्रतिफलन समझने लगे। जानवरों को अपने भोजन व उपयोग की चीज़ समझने लगे। पूरे जंगल को अपने बाज़ार का कच्चा माल समझते रहे फिर भी तुम्हारी तमाम उदासीनता व बर्बरताओं के बावजूद मैं चुप रहा। गवाह बना रहा, देखता रहा तुम्हारे हर एक हर काम को जिन्हें तुम आज भी उपलब्धियाँ कहते हो। पर, मुझे पूरा विश्वास था। एक दिन ज़रूर तुम लौट के आओगे और फिर इन पत्थरों में अपना सर पटकोगे, रोओगे, पछताओगे। गिड़गिड़ाओगे। पर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। तुम्हारे लिये लौटना आसान न होगा।” मेरी आँखों से टप टप आँसू बरसने लगे। आँखों के आगे धुँधलापन छाने लगा पहाड़ अस्पष्ट होने लगा। मैंने कुहनी मेज पे रख हथेलियों से चेहरे को ढक लिया। पहाड़ के उलाहनों से बचने के लिये कान बंद कर लिये। फिर भी पहाड़ के शब्द रिस-रिस के कानों में पड़ रहे थे। “दोस्त - मैं यह नहीं कहता कि तुम अपनी पीठ पे लदे इस बाज़ार को कुएँ में फेंक दो या कि सभ्यता की इन गौरी-शंकर चोटियों को यूँ ही भुला दो या आग के हवाले करदो। पर इतना ज़रूर कहना चाहूँगा कि कम से कम उन जड़ों को तो मत काटो जिनका तुम हिस्सा हो। हो सकता है तुम्हें याद हो या न याद हो पर तुम्हारे पूर्वज ऐसे न थे। वे भी सभ्यता के पुजारी थे पर उन्हे एहसास था अच्छी तरह मालूम था कि आदमी, पेड़, पहाड़, जंगल, जानवर सभी कुछ एक हैं। सभी कुछ उस प्रकृति का हिस्सा है जिसमें परमपिता परमेश्वर की भी अलग से कोई सत्ता नहीं है। यदि हम एक अंग की उपेक्षा करते हैं तो दूसरे की अपने आप हो जाती है। यदि एक अंग को काटते हैं तो दूसरे पे उसका प्रभाव ज़रूर पड़ेगा। इसी लिये वे प्रकृति की हर छोटी से छोटी व बड़ी से बड़ी चीज़ को एक कर के देखते थे। और इसीलिये लकड़ी काटने के पहले पेड़ की पूजा करते थे। पहाड़ पे सड़क बनाने के पहले पूजा करते थे। गाय, भैंस, बैल, नाग सभी को वह या तो देवता मान पूजते या देवताओं का वाहन मान आदर देते थे। शायद तभी वो लेाग आधुनिक कहे जाने वालों से ज्यादा सुखी व संतुष्ट थे।” डबडबाई आँखों से पहाड़ को देख रहा था। पहाड़
कुछ पसीजने लगा- यह कह पहाड़ चुप हो गया। अब तक मेरी आँखों के आँसू भी थम चुके थे। सब कुछ साफ-साफ नज़र आने लगा था। उधर सूरज हँसता हुआ पहाड़ों के पीछे अपनी आरामगाह में जा रहा था। बादल दोबारा पहाड़ों के पीछे से निकल काले काले मेघ बन आसमान पे छा रहे थे। हवा उसी तरह सन्नाटे में गीत बुन रही थी। पत्तियाँ पेड़ पर हिलने लगी थी। गिलहरी फिर से झाड़ियों से निकल टहनी पे बैठ टुकुर-टुकुर ताक रही थी। मेरी तरफ़ - दोस्ती के लिये। खिड़की के बाहर आकर मैंने गिलहरी की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ाया। खुशी से गिलहरी फुदकती हुयी दोबारा झाड़ियो में कूद गयी। मैं मगन। पहाड़ खुश। पहाड़ और स्नो व्हाइट
21.12.2003 आफिस। मेज-पूरब की तरफ़। खिड़की- पूरब की तरफ़। खिड़की के पार पहाड़ - पूरब की तरफ़। आज भी - खिड़की खुली है। दिवाकर अपने सातों रंग समेट मेज पे पसरा है। पहाड़ खिला है। हरे, भूरे, मटमैले रंगों में अपनी पूरी भव्यता के साथ। रोज़ सा। मानो सातों रंग छिटक दिये गये हों एक एक कर। इंद्रधनुष आसमान से उतर पहाड़ पे पसर गया हो। पहाड़ चुप तो आज भी है। पर है मन ही मन खिला-खिला। आज मौन मैंने ही तोड़ा ’दोस्त - हर रोज़। शुरू होती है, अन्तहीन यात्रा। सुबह देखे, सपनों के साथ। उम्मीदों के साथ, सपने सच होने के। किन्तु पल-पल वक़्त गुज़रता है। रोशनी बढ़ती जाती है। छिन-छिन सपने धुँधलाते जाते हैं। अँधेरा बढ़ता जाता है। सूरज सिर पे आता है। अँधेरा पूरी तरह फैल जाता है। सपने शून्य में खो जाते हैं। आँखों में सपने नहीं अँधेरा होता है। वक़्त अपनी रफ़तार से बढ़ता जाता है। अंदर का अँधेरा बाहर आने लगता है। सूरज अपनी माँद में छिपता जाता है। अँधेरा अंदर व बाहर दोनों जगह घिरता जाता है। दिन में टूटे सपने फिर जुड़ने लगते हैं। नये सपने बुनने के लिये। आज तुम्हारी आँखों में भी देख रहा हूँ - एक हँसी। चेहरे पे मुस्कुराहट। क्या तुम्हारा कोई सपना सच हो गया है। या कोई हसीं सपना देखा है।” “दोस्त- दुनिया एक सपना है। सपने ही दुनिया है। सपने हैं इसीलये दुनिया है। सपने न होते दुनिया न होती। क्योंकि सपना ही वर्तमान है, सपना ही भूत है, सपना ही भविष्य है। सपने, बनते हैं जिजिविषा जीने की। सपने खत्म, जीवन खत्म। रही बात मेरी तो जान लो। पत्थर सपने नहीं देखते। मैं भी नहीं देखता। हाँ सपने देखने वालों को ज़रूर देखा है। सपनों को टूटते देखा है। आओ मैं सुनाता हूँ तुम्हें एक कहानी। एक बुढ़िया की जो कभी एक औरत थी एक लड़की थी जो
आज भी सपने बुनती है। मैंने अपने कान पहाड़ की शांत चोटियों से लगा दिये। और आँखों को चट्टानों से चिपका दिया। दूर घाटियों से पहाड़ के शब्द उभरने लगे। “कल्पना करो ... यहाँ से दूर बहुत दूर। सागर किनारे। ख़ूबसूरत जगह गोवा में एक बहोत बड़े रईस की एक ख़ूबसूरत सी लड़की की। गोरा रंग नाटा कद। सुतवा नाक, साधारण पर बेहद आकर्षित करने वाली आँखें। कोमल शरीर। चंचल और शोख। नाम कुछ भी रख लो। वैसे तो हर लड़की की लगभग एक
सी कहानी होती है। खैर मैंने तो उसका नाम स्नो व्हाइट रखा है। हो सकता
है उसका नाम कुछ और हो। पर मुझे यही नाम उसके लिये सबसे अच्छा और
उपयुक्त लगा। इसीलिये मैं उसको स्नोव्हाइट कह के पहचानता हूँ। बेखबर इस बात से कि कोई किशोर उसे दूर से देखता रहता है, देख रहा है। अचानक किशोर स्नो व्हाइट के बगल आ खड़ा होता है। “क्या मैं तुम्हारे साथ खेल सकता हूँ स्नो व्हाइट।” कमल सी आँखें किशोर की आँखों से मिली। बाँहों से उसने लटों को पीछे धकेला। “हाँ हाँ क्यों नहीं जॉन”। बस दोनों खेलने लगे साथ-साथ। हँसने लगे एक साथ। अब दोनों अक्सर रेत किनारे दिख जाते। दौड़ते। भागते। खेलते। ऊब जाते तो लड़का समुद्र में छलाँगे लगा दूर तक तैरता निकल जाता। लहरों के साथ वहाँ तक जहाँ धरती व आकाश मिलते है या मिलते से महसूस होते हैं। लड़की वहीं किनारे रेत में घरौंदे बनाती। “इस तरह क्या देख रहे हो जॉन।” “कुछ नहीं स्नो बस देख रहा हूँ तुम कितनी सुंदर हो। बिलकुल परी जैसी।” “हाँ मैं परी ही तो हूँ। बिना परों की। पर तुम देखना एक दिन मैं ज़रूर उड़ कर आसमान में चली जाऊँगी दूर बहुत दूर।” “कहाँ.. चाँद पे।” “हाँ चाँद पे चली जाऊँगी।” “कोई बात नहीं मैं भी इन समुद्र की लहरों पे चलता हुआ तुम तक पहुँच
जाऊँगा।” “लहरों पे चलके तुम मुझतक कैसे पहुँचोगे?” “पूर्णिमा को जब ज्वार भाटा आयेगा तो लहरें ऊँची उठ कर मुझको तुम तक पहुँचा देंगी।” दोनों हँसते हैं। गड्ड मड्ड होते हैं। लहर और चाँदनी हो जाते हैं। चाँद शरमा के मुँह छिपा लेता है। ताड़ वृक्ष भी लहरों से झूमते हैं। ख़ामोशी “जान देखो सागर कितना सुंदर है।” “हाँ सागर है तो सुंदर है।” “क्यों क्या सागर में तुम्हें कोई स्रुंदरता नहीं दिखायी पड़ती। इन लहरों में तुम्हें कोई संगीत नहीं सुनाई पड़ता। इन पेडों में कोई रुहानी खुशबू नहीं महसूस होती।” “स्नो तुम इतनी भावुक क्यों हो। यह सब तो ज़िंदगी के हिस्से हैं। आओ मेरी बाहों में देखो कितना आनंद है।” स्नो को फिर अपने में घेर लेता है। वह भी गोद में छुप जाती है। लड़की। सपना। घरौंदा। सचमुच का घरौंदा। और ढेर सारी रेत। रेत के किनारे फला मीलों लम्बा समुद्र। समुद्र में लहरें। लहरों पे फैली चाँदनी। चाँदनी के साथ साथ उड़ते स्नो और जॉन। दूर तक दूर तक। चाँद तक। सितारों तक सितारों के पार तक। सपना सच हुआ। लड़का लोहे के बड़े बड़े जहाज पे
चढ़ लहरों पे उड़ते हुए चला गया दूर बहुत दूर। उससे भी बहुत दूर जहाँ
धरती व आकाश मिलते हैं। या मिलते हुए प्रतीत होते हैं। इंतज़ार। मीलों लम्बा इंतज़ार। समुद्र सा लम्बा व अंतहीन। और एक दिन। वह थक कर उड़ चली हवाई जहाज पे। परिचारिका बन। हवाई जहाज जब कभी, बादलों के पार जाता तो वह अपनी पलकें फाड़-फाड़ बाहर देखती, शायद जॉन चाँदनी की लहरों पे सवार हो उससे पहले आ उसके लिये घरौंदा बना रहा हो। पर हर बार उसे निराशा ही मिलती। उम्मीद भरी आँखों में अश्रुकण झिलमिला आते। धीरे-धीरे, स्नो की आँखों के सपने धुँधलाने लगे। आँसू सूखने लगे। वह फिर से मुस्कुराने लगी। उसने यह सोच तसल्ली कर ली की शाय जॉन उसके लायक ही न रहा हो। या वह ही उसके लायक न रही हो। या उससे कोई भूल हो गयी हो। कारण जो भी रहा हो पर जॉन वापस नहीं आया। शायद वापस आने के लिये गया भी नहीं था! कुछ पल के लिये मौन। “इस तरह स्नो व्हाइट की ज़िंदगी का पहला बौना रस लेकर उड़ गया था।” पहाड़ ने लम्बी साँस ली। मैंने भी। पहाड़ चुप, उदास आँखों से अनंत आकाश को देखता। मेरी उत्सुक निगाहें आगे जानने को व्याकुल। कहने लगीं - “दोस्त आगे तो बोलो।” पहाड़ कुछ देर सोचता रहा। बोला – “स्नो जॉन के बिरह में तपती गलती हँसती तो रहती पर अक्सर चुप ही रहती। किसी से कुछ न कहती। खोयी-खोयी सी रहती। फिर भी उन खोयी-खोयी सी उदास आँखों में न जाने कौन से जादू रहता कि देखने वाला स्नो को देखता ही रह जाता। पर वह इन सब से बेखबर अपनी ही दुनिया में डूबी रहती।” फिर एक दिन .. स्नो हमेशा की तरह हवाई परिचारिका की ड्रेस में सजी धजी। रुई से बादलों के बीच से उड़ रही थी। लोग उसे उड़न परी बोला करते। कारण वह सभी यात्रियों व सहायकों के काम व फरमाइशों को बड़ी तत्परता से मुस्कुराते हुए करती रहती। खूबसूरत तो वह थी ही। एक राजकुमार की नज़रें उससे मिली। राजकुमार वाकई किसी देश का राजकुमार था। देखते ही स्नो की खूबसूरती पे मर मिटा। न जाने कब। औपचारिक बातें अनौपचारिता में बदल गयी। स्नो राजकुमार के महल में रहने लगी। फूल से कोमल व रुई से हल्के बादलों को उसने अलविदा कह दिया। बादल स्नो से बिछड़ के खुश तो न थे पर स्नो की खुशी में वह खुश थे। स्नो एक बार फिर अपने नये घरौंदे में खुश थी। दिन हँसी खुशी बीत रहे थे। इन्ही हँसी खुशी के दिनों में ही कब। घरौंदा रेत का पिंजड़े में कब बदल गया। स्नो को पता ही न लगा। उड़न परी के पर न जाने कब कट चुके थे। दुनियादार राजकुमार देश दुनिया के कामों में व्यस्त रहने लगा। स्नो कभी कुछ कहती तो हँस के कहता, “स्नो तुम्हें दुख किस बात का है। तुम्हें जो चाहिये वह सब कुछ मंगा सकती हो किसी बात की कमी हो तो बोलो हाँ यह ज़रूर है कि एक रानी होने के नाते तुम्हारे कहीं आने-जाने व बोलने बतियाने में कुछ प्रतिबंध तो रहेंगे ही। और तुम तो जानती ही हो शासन चलाना इतना आसान नहीं है। इसलिये तुम मेरा हर समय इंतज़ार न किया करो।” झील से आँखें उफना जाती यह सब सुनके। उड़न परी को याद आने लगता। सागर की उन्मुक्त लहरें। मीलों लम्बे फैले रेत पे बेलौस दौड़ना। घरौंदा रेत की ही होता पर बनाती तो वह अपने ही हिसाब से थी। याद आने लगती बादलों की। चिड़िया सा परी सा फुदक के उड़ जाना आज इस देश में तो कल उस देश में। कितना मजा था। कितना आनंद था। स्नो ने एक बार फिर अपने कटे पर अलमारी से निकाले। साफ किया पिंजडे का छोड़ उड़ चली। अनंत आकाश में। बादलों ने एक बार फिर अपनी प्यारी उड़न परी का दिल खोल का स्वागत किया पर उसके परी के राजकुमार से अलग होने से कुछ उदास हो गये थे। इस बार स्नो बादलों से कहती – “तुम लोग क्यों उदास होते हो। घरौंदा तो मेरा टूटा है पर मैं तो उदास नहीं हूँ।” आँसुओं को पीते हुए आगे कहती, “दोस्त घरौंदे तो होते ही हैं टूटने के लिये। गलती मेरी ही है जौ मैंने घर की जगह घरौंदो को पसंद करती हूँ।” यह कह के खिलखिला के हँस देती। बादल भी मुस्कुरा देते। पर अंदर का दर्द दोनों ही महसूसते रहते।” यह कह पहाड़ चुप हो गया। आगे का वाक्य मैंने ही पूरा किया – पहाड़ की आँखें मुझे देखती हैं। मेरी आँखें उसकी आँखों को। लंबा मौन लंबी साँस और चंद शब्द बस कहानी खत्म। स्नो घरौंदे बनाती रही। घरौंदे टूटे रहे। बौने ज़िंदगी में आते रहे। बौने ज़िंदगी से जाते रहे। एक दिन वह बौनों से ऊब के यहीं मेरे पैरों तले सचमुच का घरौंदा बना रहने लगी है। अब वह बस उसीको सजाती है। सँवारती है। उसी में खुश रहती है। आज भी उसके घरौंदे में सात बौनों की प्रस्तर मूर्ती देख सकते हो। ज़मीन में लेटे बेजान। पर स्नो तो आज भी रातों को तारों को देखती हैं। बादलों से बतियाती है। और खुश है। पर उसे आज भी चाँद में जॉन दिखता है। अब पहाड़ चुप है। मैं भी चुप हूँ। खिड़की खुली है। गिलहरी पेड़ की खोह में जा चुकी है। दाना दुनका लेकर।
08.08.2005 आज भी रोज़ की तरह खिड़की से देखता हूँ। पहाड़ धुँधला धुँधला दिख रहा है। बादल रोज़ की तरह छाये थे। हालाँकि बारिश कई दिनों बाद आज थमी है। पर अभी भी कभी भी बरस उठने के लिये व्याकुल र्है। जेठ बैसाख के प्यासे झरने उन्मुक्त रूप से बह रहे हैं। खिड़की के ठीक सामने थोड़ा से हट के दिखने वाला
रिर्वस वाटर फाल जब अपनी कुछ धाराओं को पर उछाल के फिर नीचे की ओर बहना
शुरू करता है तो छटा देखने लायक होती है। पेड़ नदी झरने सभी नयी तरंग में है। धुले-धुले नहाये-नहाये। शुभ-शुभ। पहाड़ यह सब देख सुन मगन है खुश है। पहाड़ ने मेरे लम्बे मौन को माने लक्ष्य कर लिया। अपनी चहकन दबा मेरे मौन व ख़ामोशी के साथ एक होने की कोशिश करते हुए। ’दोस्त इतने खुशनुमा माहौल में भी तुम पता नहीं क्या सोच रहे हो।” मन ही मन अपने शब्दों को तारतम्य देते हुए। ’दोस्त आदमी भी तो एक पहाड़ ही है।” न जाने कितनी सुरंगे छुपाये रखता है हर एक आदमी। न जाने कितनी खाइयों और खंदको से उबरा होता है। एक चोटी तक पहुँचने के लिये। उसकी पीठ पे न जाने कितने जंगल उगा करते हैं। |