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05.03.2012 |
वो एक दिन |
“ठीक
है,
मैं
राह देखूँगी। पर तुम्हें पहचानूँगी कैसे?”
“बाबा,
मैंने
तुम्हारी तस्वीर देखी है,
भरोसा
रखो,
मैं
तुम्हें पहचान लूँगा।”
“उम्म्म,
ठीक
है।”
एयरपोर्ट
पर
नजरें ढूँढ रही थी प्रतीक्षा की सुधीर को। सुधीर को उसने कभी देखा नहीं
था। कोई एक साल तक लगातार बातें की थी उसने सुधीर से। आज के तकनीकी
दुनिया में कम्प्यूटर पर और फोन पर बात कर के एक इन्सान को कुछ हद तक
जाना तो जा सकता है मगर कभी मिलने का मौका नहीं मिला था सुधीर से।
इन्टरनेट के माध्यम से ही मुलाकात हुई थी दोनों की। पहचान बढ़ते बढ़ते
दोस्ती तक जा पहुँची थी। आज प्रतीक्षा मुंबई जा रही थी। उसके बचपन की
सहेली की शादी थी। सुधीर को एयरपोर्ट
पर
आने को कहा था उसने। एयरपोर्ट
पर जब
सुधीर को तलाशती उसकी निगाहें जवाब दे चुकी तो उसने उसके मोबाइल पर फोन
मिलाया।
“कहाँ
हो?”
“मैं
यहीं हूँ,
तुम
कहाँ हो?”
“मैं
भी यहीं हूँ,
सामान
ले रही हूँ,
अभी
बाहर आती हूँ।”
गाड़ी
में बैठ कर प्रतीक्षा रोक नहीं पाई खुद को पूछने से,
“क्या
मैं तस्वीर से अलग दिखती हूँ?”
“नहीं,
बिल्कुल वैसी ही तो हो।”
“अच्छा
क्या तुम मुझे सीधे घर छोड़ रहे हो?”
“कहो,
कहाँ
जाना है।”
“काफी
ले लेते हैं।”
“ठीक
है।”
काफी
की दुकान में काफी भीड़ थी। काफी ले कर प्रतीक्षा सुधीर के पीछे पीछे
बाहर आ गयी। पार्किंग लाट में खड़ी गाड़ी में सुधीर के पास सामने वाली
सीट पर बैठी प्रतीक्षा ने अपनी काफी के कप से एक चुस्की लगाई। सुधीर ने
अपनी काफी की तरफ एकटक देखते हुये कहा,
“और
सुनाओ,
क्या
चल रहा है।”
“बस
ठीक।”
“इससे
ज्यादा बातें तो तुम फोन पर करती हो।”
“उम्म्म,
हाँ,
शायद
फोन पर अपने होने का अहसास दिलाना होता है,
इसलिये।
यहाँ
ऐसा नहीं है।”
“हाँ,
शायद।
चलो एक जगह ले चलता हूँ,
जल्दी
तो नहीं है?”
“कहाँ?
नहीं,
जल्दी
नहीं है।”
सुनसान से पार्क में प्रतीक्षा सुधीर के पास एक बेंच पर बैठी सुंदर शाम
को ढलते देख रही थी। अचानक सुधीर की आवाज ने उसकी तंद्रा तोड़ी।
“तुम
अच्छी लड़की हो प्रतीक्षा।”
“तुम
भी तो अच्छे हो”,
एक
हल्की मुस्कुराहट के साथ बस इतना ही कह पाई प्रतीक्षा।
“अगर
ये कहूँ कि मुझे तुमसे आकर्षण सा हो रहा है तो गलत नहीं होगा।
“उम्म्म”
“मुझे
तुममें सबसे अच्छी बात तुम्हारी फेमिनिटी लगती है। तुम बहुत फेमिनिन
हो।”
“वो
तो सभी लड़कियाँ होती हैं न?”
“हाँ,
सभी
होती हैं,
मगर
कोई ज्यादा,
कोई
कम।”
“उम्म्म।”
“अच्छा,
चलो
चलें। देर हो जायेगी अब तुम्हें।”
“हाँ,
चलो।”
पार्क
के ऊँचे नीचे रास्तों पर से चलते हुये अचानक प्रतीक्षा का हाथ पकड़
लिया सुधीर ने। शरीर में उठी उस कँपकँपी को नज़रअंदाज़ करने की कोशिश
करने के बीच उसने सुधीर को कहते सुना,
“चलो
हाथ पकड़ कर ले चलता हूँ।”
प्रतीक्षा थोड़ी देर कुछ कह नहीं पाई मगर फिर धीमी आवाज में ख़ुद को
कहते सुना,
“हम
दोनों के बीच कोई अनकहा संबंध है,
हाथ
नहीं पकड़ो।”
“ठीक
है बाबा,
जैसा
तुम कहो।”
शादी
के झमेलों के बीच भी प्रतीक्षा ने कई बार सुधीर को फोन करने की कोशिश
की मगर हर बार फोन सुधीर के
‘आँसरिंग
मशीन’
पर
जाता। एक दो संदेश छोड़े प्रतीक्षा ने मगर कोई जवाब नहीं आया।
उसकी सहेली की शादी धूमधाम से हो गयी। शादी के दो दिन बाद का प्लेन
पकड़ना था प्रतीक्षा को। रात को सबके साथ बैठ कर एक सिनेमा देखते हुये
अचानक अपने कमरे में बज रही उसके मोबाइल की तेज घंटी प्रतीक्षा के
कानों तक पहुँची। भाग कर
फोन उठाया प्रतीक्षा ने और सुधीर की आवाज सुन कर एक बार फिर कँपकँपी सी
दौड़ गयी उसके जिस्म में।
“और
क्या हो रहा है?”
“कुछ
नहीं,
सिनेमा देख रही थी।”
“अच्छा,
कौन
सी?
“
“अंग्रेजी।”
अच्छा,
और
कैसी हो?”
“ठीक
हूँ,
हाँफ
रही हूँ,
दौड़
कर आई हूँ। पता,
कमरे
का दरवाजा बंद कर के बात कर रही हूँ तुमसे,
कोई
क्या सोचेगा।”
“क्या
सोचेगा,
कुछ
नहीं। तुम बहुत ज्यादा सोचती हो।”
“चलो
कुछ भी सोचे,
आइ
डोंट केयर।”
“क्या
हो गया है तुम्हें,
प्रतीक्षा?”
“पता
नहीं सुधीर,
कुछ
महसूस कर रही हूँ।”
“अच्छा,
और
मुझे नहीं बताओगी।”
“क्या?”
“यही
जो महसूस कर रही हो।”
“मगर
मैं ऐसा महसूस नहीं करना चाहती।”
“अच्छा?
चलो
ज्यादा सोचो नहीं। ऐसा होता है,
ये
कुछ नहीं है। सिर्फ़
नई नई
मुलाकात है इसलिये। तुम ठीक हो।”
“हाँ
ऐसा ही होगा शायद।”
प्रतीक्षा अचानक धीरे से कह उठी,
“सुनो...”
“हाँ”
“तुम
कल आ जाओ,
तुम्हें लंच करवाती हूँ,
कहीं
बाहर।”
“ठीक
है,
कल
लेने आ जाऊँगा तुम्हें।”
“ठीक
है,
बारह
बजे आ जाना,
मैं
इंतजार करुँगी।”
“ठीक
है फिर,
कल
मिलते हैं।”
“ओके,
बाय।”
रात
पास सोये चाँद ने कब बिस्तर छोड़ा और कब भोर की किरण आ पड़ी उसके
सिरहाने उसे जगाने उसे पता नहीं चला।
दोपहर के बारह बजे सुधीर गाड़ी ले कर हाजिर था। गाड़ी में बैठ
कर प्रतीक्षा ने कहा,
“कापर
चिमनी चलें?”
“नहीं,
ऐसा
करते हैं,
कुछ
ले लेते हैं और उसी पार्क में चलते हैं। वहीं खा लेंगे,
खूब
ज्यादा भूख तो नहीं है?
“नहीं।”
“ठीक
है फिर।”
दोपहर
के सन्नाटे में पार्क के एक कोने में गाड़ी खड़ी कर सुधीर ने कहा,
“हाँ
अब कहो।”
“कुछ
नहीं,
क्या
कहूँ?”
“तुम्हें
पता है,
प्यार
ऐसे नहीं होता। हम सोचते हैं ग़लती से कि ये प्यार है,
पर ये
सिर्फ
आकर्षण होता है,
शारीरिक आकर्षण।”
“क्या
पता शायद होता हो,
मगर
मुझे ऐसा नहीं लगता,
मुहब्बत तो कभी भी हो सकती है।”
“हाँ,
औरतें
ऐसा सोच लेती हैं जल्दी,
मगर
आदमी ऐसा नहीं सोचते,
आकर्षण और प्यार में फर्क करना जानते हैं।”
“उम्म्म,
अच्छा। पता नहीं,
कभी
इतना सोचा नहीं इस बारे में। ख़ैर,
तुम
अपना हाथ दिखाओ।”
प्रतीक्षा सुधीर के हाथ को अपने हाथ में ले कर देखने लगी,
फिर
हँस उठी,
“तुम्हारा
हाथ है कि हथौड़ा,
बाप
रे कितना बड़ा है,
मेरा
देखो,
तुम्हारे हाथ के सामने कितना छोटा सा है।”
“हाँ,
ऐसा
ही होता है।”
सुधीर की मुस्कराहट को नजरअंदाज नहीं कर पाई प्रतीक्षा।
कब
प्रतीक्षा का हाथ सुधीर के हाथ में ही रह गया,
प्रतीक्षा को ख़बर नहीं हुई। सुधीर को कहते सुना उसने बार बार,
“नही...भले
ही मुश्किल है खुद को रोकना मगर मैं नहीं चाहता कि हम बाद में पछतायें।
और फिर ये प्यार नहीं है।”
“प्यार
नहीं है तो क्या है।”
“छलावा,
ये
छलावा है।”
प्रतीक्षा ने धीरे से सुधीर के बोलते होठों को छू लिया। और फिर एक पल
को उसने सुधीर के उँगलियों की छूअन अपने होठों पर महसूस की मगर दूसरे
ही पल सब कुछ सामान्य था।
अचानक
ख़ामोशी को तोड़ती सुधीर की आवाज प्रतीक्षा के कानों में पड़ी,
“चलो
चल कर कुछ खा लें,
फिर
तुम्हें घर छोड़ दूँगा।”
घर के
पास गाड़ी से उतरते समय प्रतीक्षा सुधीर को बस इतना ही कह पाई,
“धन्यवाद
सुधीर,
मेरा
खयाल रखने के लिये। दिल्ली पहुँच कर मुझे अपने पति का सामना करने योग्य
छोड़ने के लिये। ये दिन
मुझे हमेशा याद रहेगा। शुक्रिया।” सुधीर ने मुस्करा कर अपनी गाड़ी में चाबी लगायी, और हवा में हल्के से हाथ हिला कर सर्राटे से चल दिया। |
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