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11.18.2007 |
’पार्वती’
महाकाव्य के प्रणेता - डॉ. रामानंद तिवारी एम.सी. कटरपंच |
मार्च
सन् 1958 के अंतिम सप्ताह में अचानक दिल्ली रेडियो से केन्द्रीय
शिक्षा मंत्रालय के साहित्यक पुरस्कारों की घोषणा हुई तो एक अज्ञात कवि
के एक अश्रुत काव्य को पुरस्कृत पाकर हिन्दी संसार आश्चर्य और विस्मय
से चकित हो गया साहित्यक मठाधीशों में खलबली मच गई। साहित्य के
कर्णधारों ने हिन्दी की राजधानियों में अपने मित्रों को फोन किये,
किन्तु हिन्दी के पुरस्कृत महाकाव्य
’पार्वती’
तथा
उसके अपरिचित प्रणेता महाकवि डॉ. भारती नंदन के विषय में कोई परिचय
प्राप्त न हो सका। कुछ आलोचकों ने पार्वती की मौलिकता पर संदेह प्रकट
कर उसे कालीदास के
’कुमार
संभव’
की
विशाल प्रतिछाया बताया। परन्तु समाज की इन यतकिंचित अभिभावनाओं तथा
आलोचकों के कटु प्रहारों से पार्वती तथा उसके प्रणेता डॉ. भारती नंदन
का व्यक्तित्व समुद्र तट पर पड़ी विशाल चट्टान के सदृश्य और भी निखरा
और सुथरा।
डॉ.
रामानंद तिवारी,
जो
भरतपुर के महारानी श्री जया कॉलेज के दर्शन शास्त्र के विभागाध्यक्ष का
उपनाम भारती नंदन था। मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ कि मैं चार वर्ष तक
कॉलेज में उनका विश्वसनीय विद्यार्थी और अनेक वर्षों तक उनका सहयोगी
रहा। स्वभाव से अत्यन्त गंभीर किन्तु विनम्र तथा सदैव अपनी
स्पष्टवादिता के लिये प्रसिद्ध डॉ. रामानंद तिवारी ने कभी किसी चीज की
चिंता नहीं की। उन्हें कॉलेज में प्राचार्य का पद सौंपा गया तो
उन्होंने उसे स्वेच्छा से त्याग दिया। पार्वती महाकाव्य के प्रणेता डॉ.
रामानंद तिवारी भारती नंदन का जन्म 3 अगस्त 1919 को उत्तरप्रदेश के एटा
जिले के सोरों ग्राम में एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता
स्व. पंडित प्यारेलाल गाँव में ही वैद्य का कार्य करते थे। महाकवि
भारती नंदन का जीवन बाल्यकाल से ही कठिनाइयों और उपेक्षाओं में पला,
लेकिन
उनका जीवन अग्नि में पड़े सोने की भाँति चमकता और दमकता रहा। बचपन में
ही उनकी माता का स्वर्गवास हो गया और वह परिवार से उपेक्षित हो गये।
परन्तु गंगा नदी के पवित्र जल में दिन-रात खेलने वाले बालक रामानंद के
जीवन को गंगा ने अपने ही समान निर्मल,
पवित्र और व्यस्त बना दिया। अपने पारिवारिक सदस्यों से तिरस्कृत होकर
जब बालक रामानंद गंगा नदी के किनारे जाकर एकांत में चिंतन करते तो गंगा
मैया ने उन्हें माता का प्यार और दुलार देकर चिंतन की ओर ही अग्रसर
होने के लिये प्रेरित किया और उसी प्रेरणा से बालक रामानंद अपनी शिक्षा,
प्रतिभा और दार्शनिक प्रवृत्ति के कारण डॉ. भारती नंदन के नाम से
प्रसिद्ध दार्शनिक और कवियों की श्रेणी में पहुँच गये।
अपने
परिवार से उपेक्षित और गंगा मैया द्वारा प्रेरित बालक रामानंद घर से
बाहर निकल पड़े और अपनी योग्यता के कारण बाल्यकाल से ही शिक्षण
छात्रवृत्ति प्राप्त कर स्वावलंबी बनकर अध्ययन करते रहे। एकाकी जीवन
व्यतीत करते रहे। उन्होंने जब हाई स्कूल की परीक्षा में गौरवपूर्ण
स्थान प्राप्त कर सफलता पाई तो उनके भावी जीवन का जैसे मार्ग ही खुल
गया और सरकारी छात्रवृत्तियों के आधार पर ही उन्होंने प्रयाग
विश्वविद्यालय से प्रो. रामचन्द्र दत्तात्रेय रानाडे के मार्गदर्शन और
शिक्षण में दर्शन शास्त्र से एम. ए. तथा डी.फिल. की उपाधियाँ प्राप्त
की तथा काशी विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्री की विशेष उपाधि मिलने के
बाद सन् 1947 से वह राजस्थान में दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक का कार्य
करते रहे।
उनके
विद्यार्थीकाल की आरंभिक अनेक रचनाएँ अप्रकाशित हैं। कविता के क्षेत्र
में पार्वती महाकाव्य ही उनका प्रथम प्रकाशन है,
किन्तु यह प्रथम रचना नहीं है। पार्वती की महानता के लिये इस महाकाव्य
को डालमियाँ,
उत्तरप्रदेश सरकार तथा केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय का मौलिक काव्य
पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया और भी अनेक साहित्यक प्रतिष्ठा
के सम्मान डॉ. भारती नंदन को प्राप्त हुए। हिन्दी काव्य जगत में राम और
सीता पर अनेक काव्य और महाकाव्य लिखे गये हैं। उर्मिला पर भी महाकाव्य
की रचना की गई|
है।
परन्तु शिव और पार्वती के जीवन पर शायद पार्वती महाकाव्य ही हिन्दी
साहित्य में प्रथम मौलिक महाकाव्य है। उनकी अन्य प्रकाशित रचनाओं में
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत भारतीय दर्शन की भूमिका तथा दर्शन
शोध ग्रंथ
’शंकराचार्य
का आचार दर्शन’
प्रमुख हैं। डॉ. रामानंद तिवारी ने राजस्थान विश्विद्यालय से सत्यम्
शिवम् सुन्दरम् नामक साहित्यक शोध ग्रंथ लिखकर पी.एच. डी. की उपाधि
प्राप्त की। इस शोध ग्रंथ में भारतीय कला और काव्य के संबंध में
सांस्कृतिक मूल्यों का मौलिक विवेचन है और इसे मौलिकता के लिये अनेक
विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में सम्मानित किया गया है। उन्होंने
भारतीय जीवन दर्शन में दर्शन शास्त्री परम्परा से भिन्न हमारे
सांस्कृतिक प्रतीकों,
पर्वों,
उत्सवों,
आचारों,
प्रथाओं और पौराणिक कल्पनाओं में अंतर्निहित लोक दर्शन का विवेचन अपने
अपनेक रचनाओं में किया है। राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा उनकी पुस्तक
’भारतीय
संस्कृति के प्रतीक’
को
विशिष्ट सम्मान प्रदान किया गया है।
डॉ.
रामानंद तिवारी से जो भी व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से मिला। वह उनके
पांडित्यपूर्ण जीवन दर्शन से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा। सादगीपूर्ण
रहन-सहन के साथ उनके विचार हमेशा सामाजिक उत्थान और देश की प्रगति
चाहने वाले होते थे। उनके दो पुत्र और एक पुत्री ने देश में अपनी
प्रशासनिक सेवाएँ प्रदान की हैं। उनके दो पुत्रों विजय और दीपक ने
भारतीय प्रशासनिक तथा भारतीय पुलिस सेवा में सम्मानजनक स्थान बनाया है।
डॉ. रामानंद तिवारी के जीवन का उत्तरार्ध राजस्थान के छोटे से शहर
भरतपुर में व्यतीत हुआ और भरतपुर की विशेष संस्कृति से प्रभावित होकर
उन्होंने वहाँ के लोक जीवन पर अनेक लेख प्रकाशित कराये हैं। उनका
पार्वती महाकाव्य आज भी हिन्दी साहित्य के महाकाव्यों में अग्रणी स्थान
रखता है।
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