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11.18.2007 |
हिन्दी के
शेक्सपीयर
तमिल
भाषी हिन्दी साधक - रांगेय राघव |
हिन्दी साहित्य का सभंवत: ऐस कोई अंग नहीं है,
जहाँ
हिन्दी साहित्य के साधक डॉ.- रांगेय राघव ने अपनी साधना का प्रयोग न
किया हो। गौर वर्ण,
उन्नत
ललाट,
लम्बी
नासिका और चेहरे पर गंभीरतामयी मुस्कान बिखेरे हुए हिन्दी साहित्य के
इस अनन्य उपासक को मैंने कई बार दूर से देखा है। परन्तु दो बार उनसे
व्यक्तिश: मिलकर बातचीत भी की है। जैसे सादगी उनके साहित्य में
परिलक्षित होती है वैसे ही सीधा-सधा और सादगीपूर्ण जीवन रहा है उनका।
शायद बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि हिन्दी साहित्य का यह अनूठा
व्यक्तित्व वस्तुत: तमिल भाषी था,
जिसने
हिन्दी साहित्य और भाषा की सेवा करके अपने अलौकिक प्रतिभा से हिन्दी के
शेक्सपीयर की संज्ञा ग्रहण की। उनका असली नाम आर.एन. आचार्य था,
परन्तु उन्होंने अपना नाम रांगेय राघव रखा। रांगेय राघव नाम के पीछे
उनके व्यक्तित्व और साहित्य में दृष्टिगत होने वाली स्मन्वय की भावना
परिलक्षित होती है। अपने पिता रंगाचार्य के नाम से उन्होंने रांगेय
स्वीकार किया और अपने स्वयं के नाम राघवाचार्य से राघव शब्द लेकर अपना
नाम रांगेय राघव रख लिया।
भरतपुर जिले में एक तहसील है वैर। शहर के कोलाहल से दूर प्राकृतिक
वातावरण,
ग्रामीण सादगी और संस्कृति तथा वहाँ के वातावरण की अद्भुत शक्ति ने
रांगेय राघव को साहित्य की साधना में इस सीमा तक प्रयुक्त किया कि वह
उस छोटी सी नगरी वैर में ही बस गये। वैर भरतपुर के जाट राजाओं के एक
छोटे से किले के कारण तो प्रसिद्ध है ही,
परन्तु वहाँ तमिलनाडु के स्वामी रंगाचार्य का दक्षिण शैली का सीतारामजी
का मंदिर भी बहुत प्रसिद्ध है। इस मंदिर के महंत डॉ. रांगेय राघव के
बड़े भाई रहे हैं। मंदिर की शाला में बिल्कुल तपस्वी जैसा जीवन व्यतीत
करने वाले तमिल भाषी व्यक्ति ने हिन्दी साहित्य की देवी की पुजारी की
तरह आराधना-अर्चना की। नारियल की जटाओं के गद्दे पर लेटे-लेटे और अपने
पैर के अँगूठे में छत पर टंगे पंखे की डोरी को बाँधकर हिलाते हुए वह
घंटों तक साहित्य की विभिन्न विधाओं और अयामों के बारे में सोचते रहते
थे। जब डॉ. रांगेय राघव सोचते तो सोचते ही रहते थे - कई दिनों तक न वह
कुछ लिखते और न पढ़ते। और जब उन्हें पढ़ने की धुन सवार होती तो वह लगातार
कई दिनों तक पढ़ते ही रहते। सोचने और पढ़ने के बाद जब कभी उनका मूड बनता
तो वह लिखने बैठ जाते और निरन्तर लिखते ही रहते। लिखने की उनकी कला
अद्भुत थी। एक बार तो लिखने बैठे तो वह उस रचना को समाप्त करके ही
छोड़ते थे। इसी कारण जितनी कृतियाँ उन्होंने लिखीं वह सब पूरी की पूरी
लिखी गईं। हाँ,
उनका
अंतिम उपन्यास आखिरी आवाज कुछ अर्थों में इस कारण अधूरा रह गया कि वह
कई महीनों तक मौत से जूझते रहे। काश ऐसा होता कि वह मौत से जूझने के
बाद जीवित रहे होते तो शायद एक और उपन्यास मौत के संघर्ष के बारे में
हिन्दी साहित्य को मिल गया होता। लेकिन ओफ,
शायद
विधाता को यह मंजूर नहीं था और वह आखिरी आवाज का हल खोजने के लिये
लम्बी अनजान यात्रा पर अपनी आखिरी आवाज देकर सदा के लिये रवाना हो गये।
वह संसार से अपने अंतिम दिनों में निराश हो गये थे। इसीलिये उन्होंने
झल्लाकर कहा - कब तक पुकारूँ।
सिगरेट पीने का उन्हें बेहद शौक था। वह सिगरेट पीते तो केवल जानपील ही
- दूसरी सिगरेट को वह हाथ तक नहीं लगाते थे। एक दर्जन सिगरेट की डिब्बी
उनकी लिखने की मेज पर रखी रहती थीं और ऐश-ट्रे के नाम पर रखा गया चीनी
का प्याला दिन में तीन-चार बार साफ करना पड़ता। उनका कमरा था कि सिगरेट
की गंध और धुएँ से भरा रहता था। किसी भी आँगन्तुक ने आकर उनके कमरे का
दरवाजा खोला तो सिगरेट का एक भभका उसे लगता,
परन्तु हिन्दी साहित्य के इस साधक के लिये सिगरेट पीना एक आवश्यकता बन
गई थी। बिना सिगरेट पिये वह कुछ भी कर सकने में असमर्थ थे। परन्तु शायद
सिगरेट पीने की यह आदत ही उनकी मृत्यु का कारण बनी,
जिसने
1963 में हिन्दी के इस अनुपम योद्धा को हमसे हमेशा के लिये छीन लिया।
विदेशी साहित्य को हिन्दी भाषा के माध्यम से हिन्दी भाषी जनता तक
पहुँचाने का महान कार्य डॉ. रांगेय राघव ने किया। अंग्रेज़ी भाषा के
माध्यम से कुछ फ्राँसिसी और जर्मन साहित्यकारों का अध्ययन करने के
पश्चात् उनके बारे में हिन्दी जगत को अवगत कराने का कार्य उन्होंने
किया। विश्व प्रसिद्ध अंग्रेज़ी नाटककार शेक्सपीयर को तो उन्होंने पूरी
तरह हिन्दी में उतार ही दिया। शेक्सपीयर की अनेक रचनाओं को हिन्दी में
अनुवादित करके हिन्दी जगत को विश्व की महान कृतियों से धनी बनाया।
शेक्सपीयर को दुखांत नाटकों में हेमलेट,
ओथेलो
और मैकबेथ को तो जिस खूबी से डॉ.-रांगेय राघव ने हिन्दी के पाँडाल में
उतारा वह उनके ीवन की विशेष उपलब्धियों में गिनी जाती है। हिन्दी नाटक
के मंच पर विश्व की प्रतिष्ठित कृतियों का मंचन किया जाना भी मैंने
देखा है। उनके अनुवाद की यह विशेषता थीं कि वह अनुवाद न लगकर मूल रचना
ही प्रतीत होती है। शेक्सपीयर की लब्ध प्रतिष्ठित कृतियों को हिन्दी
में प्रस्तुत कर उनकी भावनाओं के अनुरूप शेक्सपीयर को हिन्दी साहित्य
में प्रकट करने का श्रेय डॉ. रांगेय राघव को ही जाता है और इसी कारण वह
हिन्दी के शेक्सपीयर कहे जाते हैं। उनके व्यक्तित्व को देखकर मेरे एक
मित्र ने मुझसे कहा था कि डॉ. रांगेय राघव तो देखने में भी शेक्सपीयर
ही लगते हैं और एक दिन जब मैंने डॉ. रांगेय राघव को व्यक्तिगत भेंट में
यह बात बताई|
तो वह
मुस्कुराकर रह गये। शायद शेक्सपीयर की गंभीरता को प्रकट कर रहे थे।
सन्
1942 में बंगाल के अकाल ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया। वहाँ की भूख
और भूख के कारण मानव की पैशाचिक क्रियाओं को उन्होंने स्वयं अपनी आँखों
से देखा था,
जिससे
वह इतने द्रवित हुए कि उन्होंने
’विषाद
मठ’
नामक
उपन्यास ही लिख डाला जिसमें सजीव और कारुणिक वर्णन मिलता है। अभावों
में नारी के शारीरिक व्यापार का। इसके बाद ही डॉ. रांगेय राघव का वह
उपन्यास प्रकाशित हुआ,
जिसने
त्तकालीन पढ़े-लिखे कालेजी छात्रों के जीवन को झंझकोर कर रख दिया। यह
उनका
’घरोंदा’
था
जिसने पुरानी पीढ़ी का विरोध और नई पीढ़ी का समर्थन करके रचनाकार को
प्रगतिवादी समाज में लाकर खड़ा किया। उनके लेखन में हास्य कम,
व्यंग्य अधिक मिलता है। व्यंग्य के माध्यम से समाज की कमजोरियों को
उजागर करके और उसका मजाक बनाकर दूर करने की प्रक्रिया में उनके उपन्यास
"हजूर" और "उबाल" अग्रणी समझे जाते हैं। डॉ. रांगेय राघव ने बारह-तेरह
वर्ष के समय में लगभग 50 हजार प्रकाशित और अप्रकाशित पृष्ठ लिखे हैं।
उनकी प्रकाशित रचनाओं की एक लम्बी सूची है। जहाँ एक ओर विदेशी साहित्य
का उन्होंने अनुवाद किया,
वहीं
दूसरी ओर हिन्दी साहित्य में उपन्यास,
कहानियाँ,
निबंध,
कविताएँ और यहाँ तक कि चित्रकारी भी करके उन्होंने साहित्य के सभी
आयामों को अपनी पकड़ में रखा। चाहे उनकी कविताएँ और चित्र कृतियाँ उनके
व्यक्तित्व से अलग हो गई और उनका वह रूप हमारे समक्ष व्यक्त नहीं हो
पाया। उनकी प्रसिद्ध कृतियों में तूफान के बीच अधूरी मूरत,
अंगार
न बुझे,
आखिरी
आवाज,
पक्षी
और आकाश,
मुर्दों का टीला आदि उपन्यास हिन्दी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं। इस
तमिल भाषी हिन्दी के साधक और हिन्दी साहित्य के शेक्सपीयर डॉ. रांगेय
राघव को हमारा शत्-शत् प्रणाम! |
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