तुम्हारे इस कथन पर, कि
- "मैं चुक गया हूँ" …..
श्रीहरिकोटा के
मीलों-मील पसरे
सूनेपन में
बीहड़, जंगल
नदी, नद – खाइयों, सागर-तट
पगडंडियों – चौगलियों को
धुँधलाता, मेटता
सर्वग्रासी एकाकृत
एक अनहद छूटता है
विलोम गणना का –
बीस, उन्नीस, अठारह,
सत्रह, सोलह….
पार्थसारथी के पांचजन्य को
गूँजे, बिसरे
आज ज़माना हो गया।
तेरह, बारह, ग्यारह….
…………………………………
……………..यह चुकना नहीं है बंधु!
एक सुनिश्चित कक्ष में
स्थापित होने के लिये
यह एक
सुनिश्चित प्रक्षेप है।
बंधु!
अप्रस्तुत तुम रह ही नहीं सकते…