अंतहीन सफ़र
अपने ही सायों के सिरों तक
बिफरे हुये आकाश के आइनों में
वेदनाओं के पत्थर की सिरा पर
फूट रहे थे झरने आँखों से
थकी हुई थीं इच्छाएँ
समय था बेबस
उम्र ही ढल गई
सांझ के सन्नाटों की दुविधा में
टूटे निर्मोही रिश्ते कंधों पर लादे
मंज़िलों को तरसें टूटी दिवारें
आस्थाएँ, निराशायें
पल-पल ओझल पड़ावों में
दूर तक फैले आँसुओं की झील
एकाकी निर्जन सपने उलझाये
बीता हुआ मौसम
साँझ
धीरे-धीरे गगन से उतरती हुई
अदृश्य को गढ़ती गीले गालों पर
निर्जीव मन में
सृजन करता गरल
टूटे हुये मन की छटपटाहट .......