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05.03.2012 |
फरिश्ता |
सधे
हाथों से मधुकर एम्ब्युलैन्स को सड़क की भीड़ से निकालता ई.एस.आई.
अस्पताल,
औंध
की ओर ले जा रहा था। उसमें बेहोश पड़ा रोगी दिल का मरीज था। एक महीने
पहले उसे दिल का दौरा पड़ा था और आज फिर
‘अटैक’
के
लक्षण थे। ई.एस.आई. अस्पताल के हृदयरोग विशेषज्ञ की देखरेख में उसका
इलाज चल रहा था। आज जैसे ही उसकी तबियत बिगड़नी शुरू हुई,
उसकी
बेटी ने अस्पताल फोन करके एम्ब्युलैन्स बुला ली। साथ में एक नर्स और
सहायक भी आया। उनकी निगरानी में सावधानी से उसे एम्ब्युलैन्स में
लेटाकर,
बेटी
भी उसके पास बैठ गई। रोगी को जल्द से जल्द अस्पताल पहुँचाना था। मधुकर
घरवालों से अधिक बेचैन था - रोगी को डॉक्टर के पास पहुँचाने के लिए।
ऐसे समय पर,
विशेष
तौर से आपातकालीन मौकों पर वह जरूरत से ज्यादा चिन्तित रहता था। किन्तु
चिन्ता और व्याकुलता में,
बौखलाने जैसी गलती नहीं करता था वरन् सचेत और सन्तुलित रहता था,
जिससे
रोगी और उसके परिवारजनों की जानलेवा बेचैनी को जल्दी से जल्दी दूर करने
में सहायक हो सके। मधुकर के इसी अमोल गुण के कारण अस्पताल के सभी
डॉक्टर और नर्स उस पर बहुत भरोसा करते थे और किसी मरीज को घर भेजना हो
या घर से तुरन्त अस्पताल लाना हो तो इतने गाड़ी चालकों के होते हुए भी,
सबकी
जुबान पर एक ही नाम होता -
‘मधुकर
जाधव’!
गरीबी
में पला-बढ़ा मधुकर एक अनपढ़,
सीधा
सादा इंसान था। रामबाड़ी के
‘आदर्शनगर’
इलाके
में पत्नी लक्ष्मी,
बेटे
सुनील के साथ रहता था। बेटे की पत्नी जयश्री - अपने पति व बच्चों के
साथ-साथ,
सास-ससुर की भी बड़ी सेवा करती और उनका खूब ख्याल रखती थी।
यूँ
तो मधुकर का पुश्तैनी घर खड़कवासला के आगे बसे छोटे से गाँव
‘खड़कवाडी’
में
था,
खेती
बाड़ी की थोड़ी सी जमीन भी थी,
पर
मधुकर का मन पूना में ही लगता है। खेती देखने उसे कभी-कभी गाँव जाना पड़
जाता,
तो वह जल्द से जल्द वहाँ से वापिस आने की सोचने लगता। सोचता ही नहीं
अपितु दस दिन के प्रोग्राम से जाकर,
चार
दिन में ही लौट आता। मधुकर की पत्नी लक्ष्मी की दोनों आँखों की रोशनी
जा चुकी थी,
लेकिन
मधुकर उसे जरा भी उसके अन्धेपन का एहसास न होने देता। जब भी कहीं घूमने
जाता,
तो
कभी भी उसके बिना न जाता,
वह
जरूर साथ रहती,
मधुकर
की आँखों से वह सब देखती और घूमती।
मधुकर
अगले वर्ष रिटायर होने वाला था। यह सोच-सोच कर मधुकर बौराया सा रहता कि
काम के बिना मन कैसे लगेगा?
अस्पताल का नियम ड्राइवर को 58 वर्ष की उम्र में रिटायर कर देने का है,
जबकि
मधुकर की अभी नजर भी ठीक थी,
सेहत
भी अच्छी थी- पर नियम तो नियम है। घर में बैठ कर,
रात
के खाने के बाद वह लक्ष्मी के साथ अक्सर प्लान बनाया करता कि रिटायर
होकर,
वह
कुछ छोटा-मोटा काम शुरू करेगा,
जिससे
आमदनी भी अच्छी हो और उसे ज्यादा भाग-दौड़ भी न करनी पड़े। लेकिन लक्ष्मी
उसके किसी भी प्लान को कभी भी स्वीकृति न देती। क्योंकि उसके अनुसार
मधुकर ने जीवन भर जिस काबलियत के बल पर रोजी रोटी कमाई,
उसे
वही काम रिटायर होकर भी करना चाहिए। उस ड्राइवरी के काम से वह परिचित
भी था और उसमें उसका हाथ भी आत्मविश्वास के साथ सधा हुआ था। लक्ष्मी का
कहना था कि ढलती उम्र में नए काम में हाथ डालना,
परेशानियों को न्यौता देना है। लक्ष्मी हमेशा बात समझदारी और अक्लमन्दी
की कहती थी,
तो
इसलिए मधुकर उसकी बात सिर झुकाकर आज्ञाकारी बच्चे की तरह सुनता ही नहीं,
बल्कि
मानता भी था।
*
*
*
*
*
सवेरे
5 बजे उठकर,
ठण्डे
पानी से नहाकर,
बालों
में खोपरे का तेल डालकर,
मधुकर
सात बजे तक चाय नाश्ता लेकर अस्पताल के लिए निकल जाता था क्योंकि आठ
बजे से 2 बजे तक उसकी ड्यूटी बिना विराम के लगातार जारी रहती थी। कभी
किसी मरीज को
‘ससून’
अस्पताल,
तो
किसी को
‘रुबीहॉल’,
तो
किसी को
‘बुधरानी
अस्पताल’
और
‘जहाँगीर’
में
ले जाना होता। अक्सर कहा जाता है कि रोगियों को देख-देखकर,
स्वस्थ इंसान भी आधा रोगी सा हो जाता है। किन्तु मधुकर पर प्रतिक्रिया
ठीक इसके विपरीत थी। वह रोगी की दयनीय हालत देखकर,
एकाएक
न जाने कौन सी दैवी शक्ति से,
चुस्ती और फुर्ती से भर जाता था कि थकने का नाम ही नहीं लेता था। यह
कमाल था,
उसके
उन संस्कारों का,
उँचे
मूल्यों और परहित की भावना का,
जो
उसमें कूट-कूट के भरी थी। दूसरे की मदद,
सेवाभाव,
कष्ट
से घिरे लोगों की ईमानदारी से सहायता करना,
अपनी
जानकारी व क्षमतानुसार भीड़ भरे अस्पताल में उनकी रहनुमाई करना। इतना ही
नहीं कई बार तो वह रोगी के साथ आए,
चिन्तित व परेशान घरवालों को अपने आप चाय लाकर पिलाता। इस परसेवा में
कई बार मधुकर के खाने का डिब्बा,
एम्ब्युलैन्स में,
ई.एस.आई. से ससून,
ससून
से रुबीहॉल,
तो
कभी रुबीहॉल से बुधरानी अस्पताल घूमता रहता,
पर
उसमें रखा खाना उसके पेट में न जा पाता। अपने स्वार्थों को उपरत समाज
में मधुकर निस्वार्थ भाव की मिसाल था। आधुनिक,
असंवेदनशील व भावनात्मक रूप से निर्दयी दुनिया,
आज जो
केवल अपने सुख चैन व आराम की ही सोचती है - उसमें मधुकर जैसा भोला
मानुस,
कंटकवन में स्वतः उग आए फूल के समान था। भावनाएँ,
कोमलता,
सम्वेदना मधुकर के रूप में मानों पुष्पित थी,
महक
रही थी।
*
*
*
मधुकर
अपनी बस्ती में
‘बापू’
के
नाम से पुकारा जाता था। बच्चा,
बड़ा-जवान,
हर
कोई उसे प्यार से
‘बापू’
कहता।
सच में वह जगत् बापू था। सबके प्रति प्यार,
ख्याल
और ममता से भरा प्यारा बापू ! पर एक बात पर,
उसकी
सब मजाक बनाते हैं कि जीप,
वैन,
हर
तरह की आधुनिक कारें,
बड़ी
कुशलता से चलाना जानता था किन्तु स्कूटर और मोबाइक चलाना उसे बिल्कुल
नहीं आता था। वह भी अक्सर बड़े खेद के साथ कहता -
“बस,
अपुन
यहीं मात खाता है। अपुन को
‘टूव्हीलर’
ही आज
तक चलाना नहीं आया,
न ही
सीखा,
न
चलाया।”
इस पर
बस्ती के युवक अक्सर उससे प्यार भरी चुटकी लेते,
कहते
-
“अरे
बापू,
जवानी
में न सही,
अब
बुढ़ापे की ओर जाते-जाते तो स्कूटर चलाना सीख लो। जो कोई सुनता है -
आश्चर्य करता है कि इतने बढ़िया ड्रावर को टूव्हीलर चलाना नहीं आता ! वो
क्या बापू,
याद
नहीं क्या - गोयल साहब के बंगले पर जब तू मेमसाब को फूलों की पौध देने
गया था तो मेमसाब ने तुझसे उनके स्कूटर से जाकर,
पास
वाली केमिस्ट की दुकान से दवा लाने के लिए कहा तो - तू कैसा चुप करके
खड़ा-खड़ा स्कूटर को देखता रहा। तुझे यह बोलते कैसी शरम आई कि तुझे
स्कूटर चलाना नहीं आता। जब बार- बार मैडम के कहने पर तूने क कि अपुन
पैदल लेकर आयेगा दा,
तो
मेमसाब तुझे चाबी हाथ में देते हुए बोली - कि अरे चल! स्कूटर से जा,
जल्दी
जायेगा तो,
जल्दी
आयेगा - तब तुझे कहना ही पड़ा कि तुझे स्कूटर चलाना,
स्ट्राट करना भी नहीं आता। यह सुनकर मेमसाब आँखें फाड़-फाड़कर अचरज से
भरी तुझे कैसे देखती रह गई और फिर खूब हँसी! औरो की बात छोड़ बापू,
जब
अपुन की
‘लक्ष्मी
आई’
तुझ
पर,
इस
बात को लेकर हँसती है,
तब तू
कैसा सिर झुका कर बैठा रहता है। सीख ले बापू,
सीख
ले। रिटायर होकर
‘आई’
को
सुनील भाई की मोटरसाइकिल पर बैठाकर घुमाने कैसे ले जायेगा तू!”
यह
सुनकर बापू लजाया सा हँसता और कहता -
“अगले
जनम के लिए भी तो कुछ छोड़ना माँगता है! टूव्हीलर अब अगले जनम में ही
सीखेगा अपुन।”
यह
दलील सुनकर लक्ष्मण,
धूमि,
तात्या,
अनिल,
राम
और नाटू खूब हँसते।
वैसे
मधुकर भी कम मसखरा नहीं था। पर उसे मसखरी कभी-कभी ही सूझती थी और जब
सूझती थी,
तो
सबकी नाक में दम कर देता था वह। पिछले साल की ही तो बात है। डांडिया
रास पर बापू ने भांग पी ली। फिर क्या था,
बापू
ने जो डांडिया नाच शुरू किया तो थमने का नाम ही नहीं लिया। क्या
ठुमक-ठुमक कर,
लचक-लचक कर नाचा वह ! किसी ने जोश में आकर घुँघरू भी बाँध दिए बापू के।
छम-छम-छम मधुकर का ताल से पैर उठाना,
ठुमके
पर ठुमके लगाना,
सिर
झुका कर,
सिर
हिला-हिला कर नाचना सबके लिए तमाशा बन गया। कोई उसे रोकने आता,
तो वह
उसे पकड़ कर ही नाचने लगता। देर रात तक वह हाँफ-हाँफ कर नाचता रहा। जब
हद ही हो गई तो बेटा सुनील,
माँ
का हाथ पकड़कर मधुकर के पास ले गया,
तब
लक्ष्मी की आवाज सुनकर उसके थिरकते कदम रुके और वह थोड़ा होश में आया।
अगले
दिन सुब्ह जब सबने उसके नाच और ठुमकों का उससे वर्णन करना शुरू किया तो
वह शरम से गठरी सा बना बैठा धीमे-धीमे हँसता रहा। फिर बोला-
“देवा
रे देवा,
अब
अपुन कभी भाँग नहीं पिएगा।”
तभी
पड़ौसी धूमि बोला -
“तुम
मत पीना,
पर
अपुन तुमको पिलाएगा। तुमको पता ही नहीं चलेगा। अगले साल भी तुम्हारा
गोविन्दा माफिक नाच देखना माँगता अपुन लोग,
बापू।”
यह
सुनकर मधुकर धूमि को
‘धत्’
कहकर,
सबके
बीच से उठकर न जाने कहाँ गायब हो गया। एक बार
‘बापू’
को न
जाने क्या सूझी कि उसने चाँदनी रात में चबूतरे पर गप्पे मारते बैठे
साथियों के बीच खड़े होकर किसी बात पर जो
‘लावणी’
करके
दिखाया तो सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए। नाचते समय उसके हावभाव और
मुद्राएँ ऐसी होती कि जिन्हें देखकर गम्भीर से गम्भीर व्यक्ति भी हँसे
बिना न रह पाता
*
*
*
*
एक
बार रामबाड़ी के प्राइमरी स्कूल में वार्षिक महोत्सव था। उसमें आसपास की
बस्ती के पढ़ने वाले बच्चों के मातापिता व बुजुर्गों को भी निमन्त्रित
किया गया था। रामबाड़ी के एक 70 वर्षीय बुजुर्ग द्वारा कार्यक्रम का
उद्घाटन कराया गया व दो-चार बुजुर्गवारों से स्टेज पर आकर माइक पे
बच्चों के उत्साहवर्द्धन हेतु दो शब्द बोलने का अनुरोध किया गया। उन
वक्ताओं में बापू भी एक था। जब उसके बोलने की बारी आई तो वह डरा,
हिचकिचाया। लेकिन उसके साथियों ने किसी तरह उसे समझाया और कहा कि और
कुछ नहीं तो
‘बच्चों
को शुभेच्छा’
कह कर
ही स्टेज से नीचे उतर आना। यह बात बापू की समझ में आ गई और वह अपने
कपड़े ठीक करता उठा,
बालों
पर हाथ फेरा और ठिठकता सा माइक पर जा पहुँचा। सामने बैठी भीड़ को देखकर
उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा तभी उसकी नजर बच्चों पर पड़ी,
उनकी
मुस्कान ने उस पर न जाने क्या जादू फेरा कि वह बोलना शुरू हो गया और जो
शुरू हुआ तो - न जाने क्या-क्या बाते जो उसके मन में गुनी हुई थी वे
एक-एक करके निकलने लगी। शिक्षा,
सफाई,
सेहत,
कॉर्पोरेशन से लेकर सरकार तक - सबको समेटते हुए उसने खासा भाषण दे
डाला। नीचे बैठे,
उसके
साथी,
बस्ती
के युवक आदि उसे इशारे से चेताते कि
“बस
बहुत हो गया,
अब
स्टेज छोड़ नीचे उतर आओ”-
तो
मधुकर जैसे उन्हें देखकर भी न देखता सा,
अविराम बोले चला गया। स्कूल के हेडमास्टर व सभी अध्यापक मधुकर से बड़े
प्रभावित हुए। समय अधिक लेने से थोड़ा बोर तो हुए,
किन्तु बापू की सोच,
उसके
सुलझे विचारों व बेहिचक रफ्तार से बोलने की क्षमता से चकित से रह गए।
मधुकर जब मंच से नीचे उतर कर आया तो तात्या ने उस पर व्यंग करते हुए
कहा -
“ओ
बापू तू तो नेता है,
नेता
की तरह क्या भाषण झाड़ा तूने! एलेक्शन पास ही है - टिकिट के लिए कोशिश
करना तू।”
लेकिन
बापू यह सुनकर भी बिना किसी प्रतिक्रिया के,
निर्विकार भाव से अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गया। उसने स्टेज पर जो भी
बोला - उसका तो उसे भी नहीं पता था कि किसी दैवी शक्ति ने उससे वह सब
बुलवा दिया था। उसके लिए वह नेताओं या अभिनेताओं की तरह पहले से थोड़ा
सा भी तैयार न था। अचानक ही उसे स्टेज पर धकेला गया और जब बोलना ही पड़ा
तो जो कुछ गणपति बप्पा ने उसके दिमाग में भेजा,
उसने
वह सब अपनी टूटी-फूटी मराठी व हिन्दी में सब तक पहुँचाने की कोशिश भर
की। निस्सन्देह वे सब बातें भाषणबाजी नहीं थी वरन् उसके अन्दर की उस
विचारशीलता की परिचायक थी,
जो
उसके आस-पास,
घर,
शहर,
वह
अस्पताल में घटने वाली हर छोटी बड़ी घटना पर गम्भीरता से सोचने के कारण
पनपी थी। वह मनुष्य से लेकर समाज और देशभर के लिए विचारशील था,
कुछ
अच्छा करना चाहता था तथा दूसरों को भी कर्मठता और रचनात्मकता की ओर
प्रेरित करना अपना मानवीय धर्म समझता था। मधुकर अनपढ़ था,
साधनहीन था,
इसलिए
अपनी बड़ी-बड़ी सोच व सुन्दर विचारों को कोई रूपाकार नहीं दे पाता था,
किन्तु अपनी क्षमता अनुसार उससे जितना बनता था - वह उससे कहीं अधिक
मानवीय कर्त्तव्यों को निबाहता था।
*
*
*
*
*
रात
के 12 बजे थे। मधुकर एक रोगी को ससून अस्पताल छोड़कर औंध वापिस जा रहा
था। रात के सन्नाटे में गणेशखिंड रोड पर एम्ब्युलैंस की हैडलाइट्स में
उसे सड़क के किनारे एक आदमी खून से लथपथ पड़ा दिखा। उसने तुरन्त ब्रेक
लगाकर गाड़ी रोकी और नीचे उतरा तो पाया कि किसी ने उस आदमी को बुरी तरह
घायल कर दिया था। कपड़ों से,
पहनावे से वह कोई सम्भ्रान्त व रईस व्यक्ति लगता था। मधुकर ने इधर-उधर
सरसरी नजर से देखा,
यह
खोजने के लिए कि अपराधी आस-पास ही है या भाग गया है,
तभी
उसकी नजर मोटरसाइकिल स्टार्ट करते,
दो
आदमियों पर पड़ी,
जो
अँधेरे के कारण ठीक से नजर तो नहीं आए किन्तु कुछ सन्दिग्ध से लगे
मधुकर को। मधुकर को समझते देर नहीं लगी। क्योंकि घायल आदमी के साथ वो
हादसा ताजा ही हुआ था और वह मरा नहीं था। बेहोशी की सी हालत में हिल
डुल रहा था। मधुकर के मन में एकबारगी आया कि वह गाड़ी दौड़ाकर पहले उन
अपराधियों को दबोचे - लेकिन दूसरे ही पल घायल व्यक्ति की नाजुक हालत ने
उसके तुरन्त उपचार की ओर उसका ध्यान खींचा। मधुकर ने तुरन्त उसे गाड़ी
में लेटाया और अस्पताल की ओर चल पड़ा। अस्पताल पहुँचते ही,
आपातकालीन कक्ष से झपट कर स्ट्रैचर मँगवाया और उस अनजान घायल को बिना
किसी देरी के डॉक्टर के सुपुर्द कर दिया। डॉक्टर भी उस आदमी की दशा
देखकर घबरा सा गया। भले ही ऐसी खौफनाक दुर्घटनाओं,
रोगों
व हादसों के शिकार लोगो को हर रोज देखना डाक्टरों के लिए एक आम बात है
किन्तु हैं तो वे भी इंसान ही है। डाक्टर ने,
नर्स
और वार्ड ब्वॉय को,
उसे
आपरेशन थियेटर में शिफ्ट करने का आदेश देकर - स्वयं के कपड़े बदले और
ओ.टी. में पहुँच गया। चार घन्टे उसका आप्रेशन चला,
ग्लूकोज पर ग्लूकोज चढ़ाया गया तब कही अगले दिन 3 बजे के लगभग उस
व्यक्ति को थोड़ा-थोड़ा होश आया। शरीर में थोड़ी हरकत हुई। उस हालत में,
सबसे
पहला सवाल,
उसने
अपनी क्षीण आवाज यह किया कि वह
‘फरिश्ता’
कौन
था,
जिसने
उसे रात के धुप अँधेरे में उठाकर,
अस्पताल में लाकर जीवनदान दिया
?
डाक्टर ने कहा -”उससे
मिलवायेंगे लेकिन आप अभी थोड़ा आराम करें। अपने पर मानसिक व शारीरिक
किसी भी तरह का जोर न डालें। जैसे ही वह
‘फरिश्ता’
आयेगा
हम तुरन्त उसे आपके पास लेकर आयेंगे।”
उस
समय मधुकर ड्यूटी पर था - रुबीहॉल गया हुआ था। एक घन्टे बाद जैसे ही
मधुकर लौटा,
डॉ.गायकवाड़ उसे उस मौत के मुँह से निकले
‘अनजान’
व्यक्ति के पास लेकर गए और बोले -
“यही
है वह फरिश्ता जिसने आपकी जान बचाई।”
वह
व्यक्ति मधुकर से मिलकर भावुक हो उठा और उसकी आँखों से आँसू बह चले।
मधुकर को इशारे से पास बुलाकर,
हाथ
पकड़कर वह भावविभोर हुआ बोला -
“यदि
मैं तुम्हें अपना सब कुछ,
जमीन
-जायदाद,
सारा
खजाना भी दे दूँ,
तब भी
मैं तुम्हारे एहसान से उऋण नहीं हो पाऊँगा। किन शब्दों में तुम्हारा
धन्यवाद दूँ। मेरी माँ,
मेरी
पत्नी व बच्चे तुम्हारे कितने शुक्रगुजार होंगे - यह तुम अन्दाजा नहीं
लगा सकते। मुझे कुछ हो जाता तो,
मेरा
परिवार बिखर जाता,
अनाथ
हो जाता और सम्भव है कि मेरे परिवार का भी वही हश्र होता जो मेरा
होते-होते रह गया। मेरे पास धन की कमी नहीं,
पुश्तैनी जायदाद है। यही झगड़े की जड़ है। यह जायदाद ही मेरी जान की
दुश्मन बनी हुई है। लेकिन वह यूँ भी,
फेंकी
नहीं जा सकती। माँ बूढ़ी है,
पत्नी
बीमार रहती है। दो बेटे है - एक 35 साल का और दूसरा 28 साल का पर,
दोनों
ही विकलांग है - अपनी रक्षा व देखभाल करने में असमर्थ है।”
तभी
‘सांध्यटाइम्स’
हाथ
में लिए,
दूर
से आती सिस्टर टामस बोली -
“अरे
सिस्टर दस्तूर! आपने यह खबर पढ़ी शहर का एक उद्योगपति
‘जगतप
सप्रे’
कल से
लापता है। उनकी माँ,
पत्नी
और बच्चों के बयान छपे हैं। रात भर घर न लौटने पर जब सुबह 6 बजे पत्नी
ने पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट लिखवाई,
तो
पुलिस उन्हें खोजने के लिए हरकत में आई। अभी तक कोई सुराग नहीं मिला है
उनका। फोटो भी छपी है - पर साफ नहीं बड़ी धुँधली है,
चेहरा
ठीक नजर नहीं आ रहा।”
इधर
वार्ड में डॉ. गायकवाड़ उस
‘अंजान’
दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति से बोले -
“अब
आप धीरे-धीरे,
आराम
से अपना नाम पता हमें बता दीजिए जिससे हम आपके घर वालों को सूचित कर
सकें। जैसे ही उस व्यक्ति ने कहा -
‘जगतप
सप्रे’
इतना
सुनना था कि डॉ. गायकवाड़,
नर्स
व मधुकर भौंचक से रह गए।
“अरे
आप ही उद्योगपति सप्रे है। थोड़ी देर पहले हमने अखबार में खबर पढ़ी और
तस्वीर भी देखी थी किन्तु चेहरे के घावों के कारण व तस्वीर धुँधली होने
के कारण हम आपसे उस तस्वीर का मिलान ही नहीं कर सके”-
पास
खड़ी नर्स बोली,
जिसने
व्यस्त डॉ.गायकवाड़ से कुछ मिनट पहले कॉरिडार में ज़िक्र किया था।
तभी
‘सिस्टर
टामस’
कमरे
के बाहर से गुजरते हुए,
कमरे
के अन्दर यूँ ही चैकिंग के लिए झाँकी तो डॉ. गायकवाड़ को वहाँ पाकर बोली
-
“डॉक्टर
आपको पता है उद्योगपति सप्रे कल से लापता है।”
यह सुनते ही डॉ.गायकवाड़
मुस्करा कर बोले -
“जगतप
सप्रे अब लापता नहीं,
बल्कि
हमारे पास सुरक्षित है!”
यह
सुनते ही सिस्टर
टामस जो अब तक आधी दरवाजे के बाहर और आधी अन्दर थी एक ही झटके में
अन्दर आ गई और बोली -
“किधर
है?”
डाक्टर ने
‘सप्रे
जी’
की ओर
इशारा किया। सिस्टर टामस तो चकित
‘सप्रे’
को
देखती रह गई। तभी
‘सप्रे
जी’
बड़ी
कठिनाई से मुस्कराने की कोशिश करते हुए बोले -
“एक
बहुत बड़ी बला थी जो मधुकर के कारण टल गई और इ समय आप सबके सामने मैं
साँे ले रहा हूँ,
बोल
पा रहा हूँ,
पूर्णरूप से खतरे से बाहर हूँ। मधुकर मुझे समय पर यहाँ न लाता तो - मैं
रात के सन्नाटे में वही पड़ा-पड़ा अब तक कब का मर गया होता। जैसे ही
सप्रे का अस्पताल में होने का समाचार घरवालों व अन्य जानने वालों को
मिला - वे सब एक-एक करके मिलने आने लगे। कुछ प्रेस रिपोर्टर भी अस्पताल
में आ पहुँचे। अगले दिन शहर के लगभग सारे दैनिक अखबार सप्रे जी के
हादसे और फरिश्ते मधुकर जाधव की प्रशंसा से भरे हुए थे। इतना ही नहीं
सप्रे जी के साथ मधुकर की फोटो भी छपी थी।
*
*
*
*
*
*
इस
घटना के 20-25 दिन बाद जब सप्रे जी को उनके घर जाने की इजाजत दी गई तो
सप्रे जी ने अगले ही दिन मधुकर को अपने बंगले पर बुला भेजा। घरवालों ने
उसका बड़ा स्वागत सत्कार किया। माँ के मुँह से तो मधुकर के लिए दुआएँ ही
खत्म नहीं हो रही थीं। काफी देर बातें करने के बाद,
सप्रेजी बोले कि वे मधुकर को प्रेम की भेंट के रूप में औंध में एक बड़ा
फ्लैट उसके व उसके परिवार के लिए देना चाहते हैं जिससे वह बस्ती के
छोटे टूटे-फूटे घर को छोड़कर,
आगे
की जन्दगी आराम से नए घर में बिताए। लेकिन मधुकर ने हाथ जोड़कर बड़ी
नम्रता से सप्रे साहब का फ्लैट का उपहार लेने से मना कर दिया। क्योंकि
उसने तो इंसानियत के नाते उनकी जान बचाई थी। इस भेंट की तो उसे वैसे भी
जरुरत नहीं थी- कारण यह था कि वह अपनी बस्ती से दूर,
प्यारे बस्तीवालों को छोड़कर औंध के फ्लैट में रह ही नहीं सकता। उन सबसे
दूर होकर तो वह जीते जी मर जायेगा। उसके प्राण,
उसकी
आत्मा उस बस्ती में बसती थी। मधुकर की भावुकता के आगे सप्रे जी कुछ न
बोल सके। बात फिर धनराशि पर आई - पर मधुकर वह भी लेने को तैयार न हुआ।
देने वाला धन बरसाने को तैयार और लेने वाला धन लेने को अनिच्छुक। यह था
बेनाम प्रेम का रिश्ता - दो अनजान व्यक्तियों के बीच इंसानियत का खरा व
सद्भावनापूर्ण रिश्ता।
*
*
*
*
*
इस
घटना को हुए 6 महीने बीत गए थें। एक दिन बापू तात्या की दुकान पर बैठा
बातें कर रहा था कि तभी लक्ष्मण
‘सकाल’
दैनिक
हाथ में लिए,
दौड़ता
हुआ आया और बोला-
“बापू,
देख,
‘केलकर
समाजसेवी संस्था’
तुम्हें इस साल का
“गौरव
पुरस्कार”
अक्टूबर में देने वाली है। मैं सबको जा कर बताता हूँ कि बापू का सम्मान
होने वाला है। सब बस्ती वाले जायेंगे इस समारोह में। बापू तेरी ढेर
सारी फोटू उतारेंगे हम!”
मधुकर
तो चुप सा बैठा रह गया। फिर निर्विकार भाव से बोला -
“अरे
ऐसा कौन सा बड़ा काम किया है अपुन ने जो कभी ये अखबार वाले,
तो
कभी संस्था वाले हंगामा मचाते रहते हैं?”
तात्या हँसा और बोला -
“ये
ही तो तुम नहीं जानते कि आज तुम जैसे लोग चिराग लेकर ढूँढे से भी नहीं
मिलते। अरे,
बापू,
तुम
औरों से हटकर हो,
बढ़-चढ़कर हो। कुछ तो बात होगी ही तभी तो मान-सम्मान तुम्हारी झोली में
खुद आकर गिर रहा है !” यह सुनकर भी मधुकर, तात्या का मुँह ताकता ऐसा बैठा रहा, जैसे वह कुछ अजीब सिर फिरी सी बात कर रहा हो। उसके सहज मन से परे थी ये बातें। उसे मानो परेशान करती थी। अजीबोगरीब थी उस भोले मनस गरीब फरिश्ते के लिए - ये बातें, ये मान-सम्मान! |
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