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03.27.2012 |
“एक
कहानी यह भी”
|
मन्नू जी
की लेखकीय यात्रा पर केन्द्रित,
उनकी सशक्त कलम से लिखी
हुई लम्बी कथा -
“एक
कहानी यह भी”
पढ़ी। उसे पढ़कर मैं इतनी
प्रभावित हुई कि मैं अपनी प्रतिक्रिया को शब्दों में कुछ इस प्रकार ढालने
को विवश हूँ।
कहानी के
समापन पर जो पहला भाव मन में आया,
वह था -
“नारी
की अद्भुत शक्ति और
सहनशीलता की कहानी”।
मन्नू जी की जिस अद्भुत एवं अदम्य शक्ति व साहस की झलक उनकी बाल्यावस्था
में दिखाई देने लगी थी,
वही आगे चल कर लेखकीय
जीवन में उत्कृष्ट रचनाओं के रूप में और गृहस्थ जीवन में सहनशील व साहसी
पत्नी के रूप में साकार हुई। बचपन से ही उनके क्रान्तिकारी कार्य - कॉलेज
की लड़कियों को अपने इशारे पे चलाना,
तेजस्वी भाषण देना तो,
कभी पिता से टक्कर लेना,
तो कभी डायरैक्टर ऑफ़
एज्युकेशन के सामने अपना तर्क युक्त पक्ष रख कर कॉलेज में थर्ड इयर खुलवाने
जैसी बहुजन-हिताय गतिविधियों में लक्षित होने लगे थे। किशोरी मन्नू जी में
समाई यह हिम्मत,
आत्मिक ताक़त सकारात्मक
दिशा में प्रवाहित थी,
मानवीयता,
न्याय एवं सामाजिक
सरोकारों पर पैर जमाये थी। इसके साथ-साथ सघन संवेदना भी उनमें कूट-कूट कर
भरी थी,
जिसके दर्शन,
आज़ादी के समय होने
वाले पीड़ादायक बँटवारे के समय,
एक
ग़रीब रंगरेज़ के अवान्तर प्रसंग में मिलती है। अनेक महत्वपूर्ण प्रसंगों
का ज़िक्र करते हुए लेखिका
ने जिस साफ़गोई,
शालीनता और पारदर्शिता से अपने लेखकीय जीवन से
जुड़े - नारी मन्नू,
पत्नी मन्नू और माँ
मन्नू - के जीवन पक्षों को,
सुखद व दुखद अनुभवों,
यातनाओं और पीड़ाओं को
समेटा है,
वे निश्चित ही दिल और
आत्मा को छूने वाली हैं। पाठक का,
लेखक के कथ्य और
अभिव्यक्ति से भावनात्मक एकाकार,
लेखक की अनुभूतियों की
“सच्चाई और गहराई”
को प्रमाणित व स्थापित
करता है। श्री
लक्ष्मीचन्द्र जैन के प्रस्ताव पर राजेन्द्र जी के साथ
'सहयोगी'
उपन्यास “एक इंच
मुस्कान”
लिख कर,
अंजाने ही मन्नू जी ने
पति राजेन्द्र से अपने बेहतर और उत्कृष्ट लेखन के झन्डे गाड़ दिए।
'बालिगंज
शिक्षा सदन'
से
'रानी
बिड़ला कॉलिज'
और इसके बाद सीधे
दिल्ली के
'मिरांडा
हाउस'
में अध्यापकी,
उनकी अध्ययवसायी
प्रवृत्ति एवं उत्तरोत्तर प्रगतिशील होने की कहानी कहती है। मन्नू जी का
व्यक्तित्व कितना बहुमुखी रहा,
वे कितनी प्रतिभा
सम्पन्न थी,
इसका पता उन्हें स्वयं
को व उनके साथ-साथ हमें भी तब चलता है,
जब एक बार ओमप्रकाश जी
के कहने पर,
उन्होंने राजकमल से
निकलने वाली पत्रिका
'नई
कहानी'
का बड़े संकोच के साथ
सम्पादन कार्य भार सम्भाला और कुशलता से उसे बिना किसी पूर्व अनुभव के निभा
ले गई। इस दौरान उन्हें लेखकों के मध्य पलने वाले द्वेष-भाव एवं ईर्ष्या का
जो खेदपूर्ण व हास्यास्पद अनुभव हुआ,
उससे वे काफ़ी खिन्न
हुई और सावधान भी।
लेखिका की
इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ कि वे कभी भी किसी वाद या पंथ से
नहीं जुड़ी। उनके अपने शब्दों में -
“मेरा
जुड़ाव यदि रहा है तो अपने देश....व चारों ओर फैली,
बिखरी ज़िन्दगी से,
जिसे मैंने नंगी आँखों
से देखा,
बिना किसी वाद का चश्मा लगाए। मेरी रचनाएँ इस बात
का प्रमाण हैं।”
(पृ.
63) राजेन्द्र
जी के
“सारा
आकाश”
और
मन्नू जी की कहानी
“यही
सच है”
पर फ़िल्म बना कर,
जब बासु चैटर्जी ने,
मन्नू जी से शरत्चंद्र
की कहानी पर फ़िल्म बनाने के लिए
“स्वामी”
का पुनर्लेखन करवाया,
तो
अपनी क्षमता पर विश्वास न करने वाली मन्नू जी ने फ़िल्म के सफल हो जाने पर
फिर एक बार अपनी प्रतिभा को
सिद्ध कर दिखाया। इससे बढ़े मनोबल के कारण ही वे शायद अपनी कहानी
“अकेली”
की और कुछ समय बाद
प्रेमचन्द के
“निर्मला”
की स्क्रिप्ट व
संवाद,
टेलीफ़िल्म एवं सीरियल
के लिए लिख सकीं। सन्
19७९
में
“महाभोज”
उपन्यास के प्रकाशन से
और बाद में १०८०-८१ में,
एन.एस.डी. के कलाकारों
द्वारा उसके सफल मंचन से धुँआधार ख्याति अर्जित करने वाली मन्नू जी का सरल
व निश्छल मन,
देश में राजनीतिक
उथल-पुथल के चलते
“मुनादी”
जैसी कविता लिखने वाले
धर्मवीर भारती जी की,
इन्द्रा गाँधी व संजय गाँधी की
प्रशंसा में लिखी गई कविता
“सूर्य
के अंश”
पढ़ कर यह सोचने पर
विवश हुआ कि -
“सृजन
के सन्दर्भ में शब्दों
के पीछे हमारे विचार,
हमारे विश्वास,
हमारी आस्था,
हमारे मूल्य....कितना कुछ
तो निहित रहता है,
तब
“मुनादी”
जैसी कविता लिखने वाली क़लम
एकाएक कैसे यह (सूर्य के अंश) लिख पाई?”
(पृ.
131)
लेखिका की यह
सोच उनके दृढ़ मूल्यों और आस्थाओं का परिचय देती है। मन्नू जी की
बीमारी या अन्य किसी ज़रूरत के समय,
उनके मिलने वाले कैसे उनके पास दौड़े चले आते थे - यह
मन्नू जी के सहज व आत्मीय स्वभाव की ओर इंगित करता है। यद्यपि
मन्नूजी की कहानी को मैं खंडों में
'तद्भव',
'कथादेश'
आदि पत्रिकाओं में
पढ़ती रही,
किन्तु टुकड़े - टुकड़े
कथ्य के सूत्र व पिछले प्रसंग दिमाग़ से निकल जाते थे,
पर पुस्तक रूप में सारे
प्रसंगों व सन्दर्भों को एक तारतम्य में पढ़ने से राजेन्द्र जी,
मन्नू जी तथा दोनों के
लेखकीय एवं वैवाहिक जीवन का जो ग्राफ़ दिलोदिमाग़ में अंकित हुआ,
वह कुछ इस प्रकार है - विविध
ग्रन्थियों (अहं,
अपना वर्चस्व,
कथनी और करनी में अन्तर,
ग़लत व बर्दाश्त न किए
जा सकने वाले अपने कामों को सही सिद्ध करने का फ़लसफ़ा,
विवाह संबंध को नकली,
उबाऊ और प्रतिभा का हनन
करने वाला मानना,
घर को दमघोटू कहकर घर
और घरवाली की भर्त्सना करना) एवं कुठांओं (असंवाद व अलगाव की निर्मम स्थिति
बनाए रखना,
पत्नी व लेखक मित्रों
के अपने से बेहतर लेखन को लेकर हीन भावना से ग्रस्त रहना,
कुंठित मनोवृत्ति के
कारण ही असफल प्रेम,
तदनन्तर असफल विवाह का
सूत्रधार होना,
इसी मनोवृत्ति के तहत
'यहाँ
तक पहुँचने की दौड़'
का
केन्द्रीय भाव मन्नू जी के अधूरे उपन्यास से उठा लेना,
आदि आदि) से अंकित और
टंकित राजेन्द्र जी का व्यक्तित्व;
-
तो दूसरी ओर उभरता है मन्नू जी
का शालीन व्यक्तित्व - जो जीवन्तता,
रचनात्मकता,
सकारात्मक क्रान्ति,
ओज व शक्ति से आपूरित,
बचपन से लेकर
28
वर्ष की उम्र तक बहद उर्जा व उत्साह के साथ जीवन में सधे कदमों से आगे
बढ़ती रहीं। विवाहोपरान्त अपने
'एकमात्र
भावनात्मक सहारे एवं लेखन के प्रेरणा स्रोत'
- 'राजेन्द्र जी'
से उपेक्षित,
अवमानित व अपमानित होकर,
टूट - टूट कर भी,
ईश्वरीय देन के रूप में मिली अदम्य
उर्जा व शक्ति के बल पर,
विक्षिप्त बना देने वाली पीड़ा को झेलकर स्वयं को सहेज- समेट कर लेखन और
अध्यापन के क्षेत्र में
अनवरत ऊँची सीढ़ियाँ चढ़ती रहीं। संवेदनशीलता - वह भी नारी की और ऊपर से
लेखिका की - इतनी नाज़ुक और छुई-मुई कि अंगुली के तनिक दबाव से भी उसमें
अमिट निशान पड़ जाएँ - कब तक सही सलामत रहती
?
लम्बे समय और
उम्र के साथ,
लगातार निर्मम चोटों से
आहत हो किरचों में चूर चूर हो गई,
सहनशक्ति चुकने लगी,
बातें अधिक चुभने लगीं
आत्मीयता की भूखी आत्मा,
अपने अकेलेपन में
शान्ति और सुकून पाने को तरसने लगी......! अदम्य शक्ति की एक निरीह तस्वीर
! मेरे मन में
रह- रह कर यह प्रश्न उठता है कि संवेदनशील राजेन्द्र जी अपनी प्रेममयी,
प्रबुद्ध,
भावुक,
योग्य व समर्पित पत्नी
के साथ
“समानान्तर
ज़िन्दगी”
के नाम पर छल- कपट
क्यों करते रहे
?
या मन्नू जी के इन गुणों व
प्रतिभाओं के कारण ही वे और अधिक कुंठित महसूस करके,
उनके साथ
“सैडिस्ट”
जैसा व्यवहार करते थे !
मन्नू जी की बीमारी में उन्हें अकेला छोड़ कर चले जाना,
विवाह के बाद भी
प्रेमिका मिता से संबंध बनाये रखना। न तो वे साथ रह कर भी साथ रहते थे और न
ही संबंध विच्छेद करते थे।
35
वर्षों तक जो मन्नू जी को उन्होंने अधर में लटका कर रखा - क्या उनका
यह बर्ताव अफ़सोस करने योग्य नहीं है
?
क्या अपराध था मन्नू जी का -
यही कि वे उनकी एकनिष्ठ पत्नी थी,
उनसे आहत हो हो
कर भी,
उन्हें प्यार करती रही,
जो चोटें,
घाव बेरहमी से उन्हें
मिले,
उफ़ किए बिना उन्हें सिर आँखों लगाती रहीं- इस
उम्मीद में कि आज नहीं तो कल,
'मुड़ मुड़ कर देखने
वाले'
राजेन्द्र एक बार मुड़
कर समग्रता में,
अपनी मन्नू को एकनिष्ठ
आत्मीयता से देखेगें और निराधार कुंठाओं और ग्रन्थियों को काटकर हमेशा के
लिए उसके पास लौट आएगें ! लेकिन यह उम्मीद कुछ समय तक तो उम्मीद ही बनी रही
और बाद में
'प्रतीक्षा'
बन कर रह गई। इसे यदि
एक निर्विवाद सत्य कहूँ,
तो शायद अत्युक्ति न
होगी कि संवेदनशील,
विचारशील लेखक
राजेन्द्र जी के व्यक्तित्व का कुंठित पक्ष ही अधिक मुखर और सक्रिय रहा,
जिसके कारण उनका
व्यक्तिगत,
लेखकीय और वैवाहिक जीवन
कभी स्वस्थ न रह सका,
खुशी,
उल्लास और सहजता के
वातावरण में श्वास न ले सका। उनके उस स्वभाव के असह्य बोझ को सहा जीवन
संगिनी - मन्नू ने। अपनी उन मानसिक और भावनात्मक यातनाओं का ब्यौरा देते
हुए,
विचारशील मन्नू जी ने पुरुष लेखकों
की प्रतिक्रिया का भी उल्लेख इस प्रकार किया है -
“लेखक
लोग धिक्कारेगें,
फटकारेगें कि इतना दुखी
और त्रस्त महसूस करने जैसा आखिर राजेन्द्र ने किया ही क्या है.....क्योंकि
हर लेखक / पुरुष के जीवन में भरे पड़े होगें ऐसे प्रेम प्रसंग,
आखिर उनकी बीवियाँ भी
तो रहती हैं।” इस सन्दर्भ
में इस तथ्य की ओर मैं सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगी कि अन्य
लेखकों की पत्नियों से,
मन्नू जी की स्थिति
नितान्त अलग थी। क्यों
?
क्योंकि
मन्नू जी के साथ विवाह,
राजेन्द्र जी पर थोपा
हुआ नहीं था,
अपितु यह मित्रता से
प्रगाढ़ रूप लेता हुआ,
पति-पत्नी संबंध में
रुपान्तरित हुआ था। राजेन्द्र जी,
मन्नू जी को स्वेच्छा
से,
प्यार से,
सुशीला जी के सामने
उनका हाथ पकड़ कर,
इस
क्रान्तिकारी संवाद के साथ -
“
सुशीला जी,
आप तो जानती ही हैं कि
रस्म-रिवाज़ में न तो मेरा कोई खास विश्वास है,
न दिलचस्पी,
बट वी आर मैरिड !”
(प.
४५) कह कर,
अपने जीवन में
सम्मानपूर्वक लाए थे। निश्चित ही
,
मन्नू जी
थोपी गई पत्नियों की अपेक्षा श्रेष्ठ व सम्मानित स्थिति में होने के
कारण,
राजेन्द्र जी से मिलने
वाली उपेक्षा से बुरी तरह छटपटाईं,
हताशा और निराशा के
बोझिल सन्नाटे में संज्ञाशून्य,
वाणी विहीन तक होने की
स्थिति में चली गई। प्रेम विवाह में पड़ी दरार अधिक त्रासदायक होती है -
दिल को बहुत सालती है....। मन्नू जी
चाहती तो ३५ साल तक तिल -तिल ख़ाक होने के बजाय,
एक ही झटके में अलग भी
हो सकती थी,
लेकिन राजेन्द्र जी के
प्रति अपने प्रगाढ़ लगाव के कारण,
जिसके तार पति के
लेखकीय व्यक्तित्व से इस मज़बूती से जुड़े थे कि हज़ार निर्मम प्रहारों के
बावज़ूद भी टूट नहीं पा रहे थे। पुस्तक के प्रारम्भ में मन्नू जी ने
'स्पष्टीकरण'
में लिखा है -
“राजेन्द्र
से विवाह करते ही जैसे लेखन का राजमार्ग खुल जाएगा।”
x x
x
जब तक
मेरे व्यक्तित्व का
लेखक पक्ष सजीव,
सक्रिय रहा,
चाहकर भी मैं,
राजेन्द्र से अलग नहीं
हो पाई। राजेन्द्र की हरकतें मुझे तोड़ती थीं,
तो मेरा लेखन,
उससे मिलने वाला यश
मुझे जोड़ देता था।
“ (
पृ. २१५)
मुझे
आश्चर्य होता है कि
1960
से भावनात्मक तूफ़ानों को झेलती हुई,
पल-पल डूबती साँसों को
जीवट से खींच कर,
उनमें पुन: प्राण
फूँकती हुई,
मन्नू जी आज भी किस साहस से
अपने अस्तित्व को बनाए हुए हैं ! मन्नू जी की इस
'गीता'
में उनके जीवन के अन्य
अतिमहत्वपूर्ण प्रसंगों में - राजेन्द्र जी से जुड़े प्रसंग जिस प्रखरता और
प्रचंडता से उभर कर आए हैं,
उनसे अन्य प्रसंग हर
बार कहीं पीछे चले जाते हैं,
न
जाने कौन सी परतों में जाकर छुप
जाते हैं और पति-पत्नी प्रसंग पाठक के दिलोदिमाग़ पर हावी हो जाते
है। मन्नू जी की
यह कहानी,
उनकी लेखकीय यात्रा के
कोई छोटे मोटे उतार चढ़ावों की ही कहानी नहीं है,
अपितु जीवन के उन बेरहम
झंझावातों और भूकम्पों की कहानी भी है,
जिनका एक झोंका,
एक झटका ही व्यक्ति को
तहस नहस कर देने के लिए काफ़ी होता है। मन्नू जी उन्हें भी झेल गईं। कुछ
तड़की,
कुछ भड़की -फिर सहज और
शान्त बन गईं। उन बेरहम झंझावातों के कारण ही मन्नू जी की कलम एक लम्बे समय
तक कुन्द रही। रचनात्मकता के सहारे जीवन का खालीपन भरती रहीं थी,
और सन्नाटे को पीने की
त्रासदी से गुज़री। किन्तु आज उन्हीं संघर्षों के बल पर वे उस तटस्थ स्थिति
में पहुँच गई हैं,
जहाँ उन्हें न दुख
सताता है,
न सुख ! एक शाश्वत
सात्विक भाव में बनीं रहती हैं,
और शायद इसी कारण वे
फिर से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हो गई हैं।
मन्नू जी
के भीतर छुपी अदम्य
नारी शक्ति,
उस
शाश्वत सात्विक भाव को शत्
शत् नमन करते हुए,
मैं कामना करती हूँ कि जब
उन्होंने फिर से कलम उठा ही ली है,
तो भविष्य में अब वे हम
पाठकों को इसी तरह अपनी हृदयग्राही रचनाओं से कृतार्थ करती रहें। |
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